मंगलवार, 22 मई 2012

“ फिजूल है कार्टून विवाद”

समय ठहरता नहीं है, समय की तस्वीर से उस दौर के हालात जाने जा  सकते है. किन्तु यह आवश्यक नहीं कि बीता हुआ कल, आज को खराब या बेहतर कर सके. हां हम गुजरे कल से नसीहत ले सकते है..या गुजरे कल की खुशहाली पर सुखद अहसास किया जा सकता है किन्तु जो बीत गया उसे वैसा ही रहने दिया जाए तो ठीक होता है. मगर ऐसा होता नहीं. मानवीय अवगुणों में प्रमुखता से जो तत्व सक्रीय है उनमे  बीते समय की खामियों को ज़िंदा करके उस पर बहस-मुबाहस होती है. ठीक बाबा साहेब आम्बेडकर के कार्टून विवाद की तरह. दर असल जिस कार्टून को लेकर हंगामा मचा है उसे एक वर्ग विशेष के साथ जोड़ कर देखा जाने लगा है. जबकि उस वक्त जब यह कार्टून प्रकाशित हुआ था तब वर्ग विशेष की मानसिकता वश इसे छापा नहीं गया था. संविधान में होने वाली देरी और चूंकि बाबा साहेब आम्बेडकर इस संविधान के निर्माता के रूप में प्रमुख थे इसलिए उनका कार्टून बनाया गया था. संभव है उस वक्त कोई भी संविधान निर्माण का मुखिया होता तो उसे  काटरूनिस्ट शंकर अपनी तूलिका से खींचते. बहरहाल, आज जब पाठ्य पुस्तक में उस कार्टून को प्रकाशित किया गया तो बवाल मचाना ही था. किन्तु यह देखना भी सर्वोपरि होगा कि किस सब्जेक्ट के तहत उस कार्टून को पुस्तक में जगह दी गयी ? अफ़सोस यह है कि हम वस्तु स्थिति को हाशिये पर रख कर अर्नगल प्रलाप करने लगते है. 
वैसे भी इस दौर की राजनीति अपने सबसे बुरे दौर से गुजरती दिखाई देती है..ऐसे में आम्बेडकर के कार्टून को मुद्दे के रूप में बना लेना कोई बड़ी बात नहीं थी. देश में दलितों के नाम पर होने वाली राजनीति ने दलितों का उद्धार कम उन्हें बहकाया अधिक है..उन तक ठीक ठीक चीजे पहुंचने ही नहीं दी गयी. वे भ्रमित ही रहे. उन्हें भ्रमित बनाए रखना राजनीति बाजों का शगल है. पाठ्य पुस्तक जो बच्चो के मन-विचारों  का विकास करती है, उन्हें जानकारी और ज्ञान प्रदान करती है उसके जरिये भी राजनीति करना इस देश के लिए घातक सिद्ध हो सकता है और अफ़सोस यह है कि इससे  बचा नहीं जा रहा. आम्बेडकर कार्टून विवाद इसी राजनीति से जन्मा एक बवाल है. गंभीरता से इस मुद्दे को समझना होगा किन्तु गंभीरता शेष है कहा ? अन्यथा विवाद जन्म ही नहीं लेता. जिस कार्टून पर बवाल है उसके बाद खुद आम्बेडकर ने अपने एक वक्तव्य में स्पष्ट किया था कि आखिर संविधान निर्माण में देर कैसे हो रही है? क्यों हो रही है?  इसके बाद के शंकर द्वारा बनाए गए कार्टून उपलब्ध नहीं हो सके वरना संभव था कि उन चित्रों में अपने पहले चित्र का खंडन भी करते शंकर दिखाई दे जाते. 
देखा यह जाना चाहिए था या पूछा यह जाना चाहिए था कि आखिर इस वक्त उस कार्टून को प्रकाशित करने का क्या प्रायोजन था? तुरंत बर्खास्तगी  या बवाल में घी डालने से बेहतर यही था. निश्चित रूप से पुस्तक में दलितों की भावना को ठेस लगाने की कोई मंशा नहीं रही होगी..किन्तु यह समझाए कौन? अब जब बवाल मच ही गया और कार्टून को पुस्तक से अलग भी कर दिया तब..विवाद को जस का तस बनाए रखने का भी कोई औचित्य  जान नहीं पड़ता. हालांकि इस विवाद ने एक बहुत बड़ा प्रश्न भी खडा कर दिया है. आज जिस तरह से हमारे नेताओं ने कई सारी योजनाओं को ठन्डे बस्ते में डाल रखा है उस पर भी एक तरह से यह कार्टून तीखा प्रहार करता जान पड़ता था..लिहाजा इस वजह से भी विरोध उनके लिए जरूरी था जिन्होंने आग में घी डालने का काम किया और इस प्रकरण की दिशा घुमा दी गयी. मुद्दे राजनीति के लिए आवश्यक होते है. संवेदनशील मुद्दे हो तो इसे सोने पे सुहागा माना जाता है क्योंकि लोगो की भावनाओं के साथ खेल कर वोटो की जुगाड़ इस देश की पुरातन क्रिया है. कार्टून मुद्दा इतना भी बवाली नहीं था जितना इसे बना दिया गया . चूंकि संवेदना इससे जुडी हुई थी इसलिए इसकी गरमाहट में हाथ सेंकने का ही  काम हुआ . बावजूद इसके मुझे फिर यह कहना होगा कि वक्त ने जो पीछे छोड़ दिया है उसे ताज़ा अगर किया भी जाना है तो उन अच्छी और प्रगतिशील तस्वीरो को उठाया जाए जिनसे देश का हर कोण से विकास हो...शेष जो अधूरे  भारत का इतिहास दर्शाता है उसके पुनर्जीवन की हम क्यों मंशा पाल कर रखे? बाबा साहेब के बेहतरीन कार्यो को अगर देखा जाता तो अधिक उचित होता . बहरहाल. कार्टून विवाद से शीघ्र निकल  जाना चाहिए और तमाम वर्गों में एक बात प्रसारित होनी चाहिए कि हमें देश का स्वस्थ विकास करना है. अगर राजनीति इस ओटले पर खडी होकर बुलंद हो तो हम सुखद राष्ट्र की कल्पना कर सकते है.  

बुधवार, 9 मार्च 2011

थैली के चट्टे-बट्टे

जितना अपने चुनावी दांव-पेंच और मतदाताओं को उल्लू बना सकने में गंभीरता अपनाई और दिमाग लगाया जाता है उतना यदि देश के लिये कांग्रेस सोचे तो सच में आश्चर्यजनक बदलाव देखने को मिल सकते हैं, किंतु अफसोस यही है कि कांग्रेस का हर नेता देश के लिये नहीं बल्कि अपने चुनावी और अपने गठबंधन को ध्यान में रखकर अपनी काबिलियत सोनिया गांधी के सामने बघारने की कोशिश करता रहता है। अफसोस यह भी है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के लिये भी बढिया नेता होने का मापदंड यही है कि उक्त नेता कांग्रेस को कितना फायदा पहुंचा सकता है और जब भी गठबंधन में कभी गडबड हो तो चुनाव जीतने तथा मतदाताओं को बेवकूफ बना सकने में वो कितना पारंगत है? कांग्रेस यहां तो हमेशा सोच समझकर, आगा-पीछा देख कर कदम उठाती है, मगर जब भी देश की बात आती है तो टालमटोली करती दिखती है, यहां तक कि उसका प्रधानमंत्री यह कह कर टाल जाता है कि उन्हें कुछ भी पता नहीं था। थॉमस मामले में यही हुआ। महंगाई हो, या बढता भ्रष्टाचार यूपीए की ऐसी कोई नीति अभी तक देखने को नहीं मिली है जो इस पर अंकुश लगा सके। यह विडंबना है इस देश की कि जनता भी कांग्रेस की इस कुचाल में फंस जाती है और वह देश में कोई बडा बदलाव लाने की फिक्र से ऐन वक़्त मुंह मोड लेती है। सच यह भी है कि कांग्रेस भारतीय जनमानस को अच्छी तरह से जानती-समझती है। यही वजह है कि उसके जाल में वो पार्टियां भी अपना हित साधने के लिये फंस जाती है जो आये दिन उसका विरोध करती रहती हैं। जैसा कि हाल ही में देखने को मिला जब पीएम ने माफी मांगी और विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने उन्हें माफ कर दिया। यह मामला सिर्फ माफी मांगने और माफी देने तक का ही था क्या? उधर डीएमके कल तक कांग्रेस से अपनी सीटों के बंटवारे में एकमुश्त शर्त की बात कर रहा था और सरकार से अलग हट जाने की बात ताल ठोंक कर दर्शा रहा था, किंतु अचानक सबकुछ तय हो गया और डीएमके कांग्रेस के साथ हाथ मिलाते नज़र आने लगी। उधर आप समाजवादी पार्टी का उदाहरण ले लीजिये, जब डीएमके ने अपना हाथ खींचने की बात कही तो इसका राजनीतिक फायदा उठाने के लिये मुलायम सिंह यादव ने झट से यह घोषणा कर दी कि वो यूपीए गठबंधन के साथ बने रहेगे और सरकार को किसी अनहोनी का सामना नहीं करना पडेगा। सपा की नीति, उसका कार्य और उसकी विचारमीमांसा रहस्यवादी है, शायद वो नहीं जानती कि स्वार्थगत राजनीति में अपना भविष्य तलाशने वाली पार्टियों को कभी न कभी मुंह की खानी ही पडती है। खैर, फिलहाल सपा ने जो सोचा था कि वो सोनिया गांधी की नज़रों में विश्वासपात्र बन जायेगी, डीएमके के राजी होने के बाद उसका भी कचरा हो गया है। दरअसल यह सब इसलिये होता है कि आज यूपीए गठबंधन की हर पार्टी किसी न किसी घोटाले या विवाद से दो हाथ कर रही है और अगर कांग्रेस से वो अलग हट जाती हैं तो उनका सत्यानाश अवश्य संभव है, लिहाज़ा खिसायाते हुए सब नतमस्तक होते रहते हैं और सोनिया गांधी को खुश करने में ही अपनी राजनीतिक भलाई मानते हैं।
बहरहाल, कांग्रेस-द्रमुक का गतिरोध लगभग खत्म हो चुका है, इससे जयललिता को भी झटका लगा होगा जो यह सोच कर बैठ गईं थी कि अब इस गतिरोध का फायदा उन्हें अपने राज्य में जरूर मिलने वाला है। प्रणब मुखर्जी का दिमाग और उनका कांग्रेस के प्रति समर्पित जीवन ही ऐसा रामबाण है जो करुणानिधि को साध गया। यह सोनिया गांधी भी जानती थी कि ऐसे समय उनके पास तुरुप का इक्का प्रणब मुखर्जी के रूप में मौजूद है, इसलिये ही वे द्रमुक की हवाबाजी से चिंतित नहीं हुई। डीएमके ने कांग्रेस को 63 सीटे दे दी। पिछली बार उसके खाते में 48 सीटे थी, आप सोच सकते हैं कि जो भी सौदेबाजी हुई होगी वो कितनी उच्चस्तरीय रही होगी। करुणानिधि की पत्नी भी 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच दायरे में है और करुणानिधि चाहते हैं कि इस दायरे से उनकी पत्नी को दूर रखा जाये। मज़ेदार बात यह है कि यहां आपस में लडाई वो करते हैं जो खुद के गिरेबां में कलंकित है, और यह जानते हैं कि एकदूसरे की ही उन्हें जरुरत है। वे बस जनता को बेवकूफ बना सके और अपनी महत्ता को दर्शा सकने के लिये हाथ-पैर चलाते रहें, उनका यही परम कर्तव्य है।
अब इस गतिरोध के बीच जयललिता को देखिये जिन्होंने कांग्रेस को अपने 9 सांसद देने की बात से राहत पहुंचाने का काम किया था। कांग्रेस जयललिता के फेंके जाल में फंस जाती मगर उसने देखा कि जयललिता ने अभिनेता विजयकांत की डीएमडीके को 41 सीटे दे रखी है तो उसे यह सौदेबाजी रास नहीं आई। 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस विजयकांत से हाथ मिलाती इसके पहले यह बाज़ी जयललिता ने मार ली थी, विजयकांत की पार्टी तमिलनाडु राजनीति में डीएमके और एआईडीएमके के बाद तीसरी सबसे बडी पार्टी के रूप में उभरी थी। ऐसे में कांग्रेस के पास उस वक्त डीएमके से जुडना लाचारी थी, अब चूंकि उसने देखा कि जयललिता के साथ अगर वह हाथ मिलाती है तो चुनाव में इसका खामियाजा उठाना पडेगा, क्योंकि उसके हाथ से डीएमके जैसे दूसरी बडी पार्टी छूट जायेगी, उधर जयललिता चाहती थी कि यदि वह कांग्रेस को पटा लेगी तो इस बार के विधानसभा चुनाव में फिर सत्ता पर आसानी से काबिज हो सकती है। किंतु कांग्रेस के लिये यह फायदेमंद सौदा नहीं था सो उसने डीएमके को पकडे रखा, डीएमके के लिये भी कांग्रेस को खोना उसकी अपनी नींद हराम होने जैसा ही था, एक तो वामपंथी पार्टियों ने उसका दामन छोड रखा है, दूसरे जयललिता ने स्थानीय पार्टियों को अपने खेमे में ले रखा है, डीएमके के लिये अकेले चुनाव लडना आसान भी नहीं था, सो थोडी हुडकी देने के बाद कांग्रेस को कांग्रेस की शर्तों पर सीटे दे दी, जब जयललिता ने यह प्रेम-मोहब्बत देखी तो वो फिर से कांग्रेस की दुश्मन पार्टी बन गई हैं। एक तरफ दोस्ती का हाथ बढाया जाता है और जब मामला करवट बदलता है तो झट से हाथ खींच लिया जाता है या हाथ मलते हुए मतदाताओं को रिझाने के लिये तर्कों-कुतर्कों का सहारा लिया जाने लगता है। राजनीति इसीको कहते हैं। मुलायम हो या जयललिता जैसे नेता सत्ता और सत्ता में बने रहकर अपने खिलाफ कोई मुहिम न चल पडे जैसी सोच के तहत कांग्रेस के आगे झुकते रहते हैं। आप यह भी देखिये कि कांग्रेस कितनी पारंगत है, कितनी मंझी हुई है कि वो तमाम विवाद के बावजूद हमेशा जीत हासिल करती है, इसका एकमात्र कारण यह है कि इस देश में उसका कोई मज़बूत विकल्प नहीं है। एक भारतीय जनता पार्टी है किंतु वो भी अपने स्थान पर अडिग रहने वाली नहीं है। उसकी करवटों से देश भलिभांति परिचित है। पहले राममंदिर का मुद्दा था तो जमकर वोट कबाड लिये गये, अब वो मुद्दा उनकी प्राथमिकता से हट गया है। इंडिया शायनिंग का गुब्बारा भी फुस्स हो चुका है और वे विपक्ष में आ बैठी। अब जब उसके पास ढेरों अवसर हैं तो उसे भुनाने में भी वो देश को अपने स्वार्थ से पीछे धकेल कर सोचती है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सीवीसी के थॉमस मामले में लगभग फंस चुके थे और भाजपा ने जिस तरह से उसे प्रचारित करके अपनी छवि संसद में कठोर बनाई थी उसकी हवा पीएम की माफी मांग लेने से ही निकल गई। भाजपा में भी इस विचार के दो धडे हो गये हैं, सुषमा स्वराज के अचानक माफ कर देने वाले लहज़े को दूसरे कुछ नेता समझ नहीं पा रहे हैं। समझे भी कैसे जब आप किसी मुद्दे को देश के साथ जोडते हैं और संसद तक को ठप करके कार्यवाही चाहते हैं,तब अचानक उस मुद्दे को कैसे ठंडा किया जा सकता है? जबकि उसके लिये आपने देश के जनमानस तक को झंझोड कर रखा। क्या वो मुद्दा अपका निजी था? जो आपके माफ कर देने से खत्म हो गया? भाजपा ने इस मुद्दे को अंजाम अपनी स्वार्थगत राजनीति खेल कर दिया। कुलमिलाकर आज चल यही रहा है आप इस देश को, देशवासियों को किस तरह से चूना लगा कर उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड कर सकते हैं, उनकी आंखों में धूल झौंककर अपनी रोटियां सेंक सकते हैं। आप इसमे जितने निपुण हैं उतने ही सफल हैं। और बेचारे सामान्य देशवासी? उनके लिये रोज अखबार पढना, चैनल देखना और किसी चौपाल पर बैठकर राजनीति की बहस कर लेना, फिर उसी महंगाई, रोज-रोज की आपाधापी में ही जीवन गुजार देना भर है। दूसरी ओर तमाम दल एक थैली के चट्टे-बट्टे से अधिक कुछ नज़र नहीं आते।

शनिवार, 5 मार्च 2011

वाह रे मनमोहना

देश का प्रधानमंत्री तब स्वीकार करता है, तब अपनी जिम्मेदारी मानता है जब सुप्रीम कोर्ट उसके कान उमेठता है। अगर मान लीजिये ऐसा नहीं होता, अदालत बीच में नहीं आती तो क्या कोई जान पाता कि एक धीर-गंभीर, सुशील, बुद्धिमान दिखाई देने वाले प्रधानमंत्री के दो चेहरे भी हैं? आप मान सकते हैं कि यह कैसा मुखिया है जो जैसा दिखता है वैसा है नहीं। अब तक सिर्फ माना जाता था किंतु अब तो खुद उनके स्वीकार कर लेने के बाद स्थितियां साफ हो गई कि बेशर्मी की कितनी हद है। पी जे थॉमस की नियुक्ति अवैध थी, क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नहीं जानते थे? यदि नहीं जानते थे तो क्यों नहीं जानते थे? जानने के लिये जब सुषमा स्वराज ने अपनी आपत्ति जाहिर की और मामले की तमाम जानकारी दी तब भी उनकी आंखे बंद क्यों रही? और जब सुप्रीम कोर्ट ने हंटर चलाया तब ही उन्हें अपनी जिम्मेदारी का अहसास क्यों हुआ? और क्या इस अहसास के बाद वे प्रायश्चित करेंगे? यदि करेंगे तो वो प्रायश्चित क्या होगा? जो भी होगा, किंतु यह सच है कि अगर विपक्ष या यह देश उन्हें सबसे अशक्त प्रधानमंत्री का तमगा देता है तो कोई गलती नहीं करता है। आप अगर मनमोहन सिंह को इसके बाद भी बेहतर प्रधानंमंत्री मानते हैं तो कम से कम अब आपको अपनी राय बदल लेनी चाहिये।
दिलचस्प होगा यह जानना कि मनमोहन सिंह के इस कबूलनामे के बाद राजनीतिक परिदृष्य कैसा होगा? वैसे भी यूपीए सरकार के दिन गर्दिश में दिखाई दे रहे हैं उपर से उसके सबसे मज़बूत धडे करुणानिधि ने भी अपना समर्थन वापस लेने की बात कर दी है, उधर पहले ही कांग्रेस भ्रष्टाचार के दलदल से उबरने का असफल प्रयत्न कर रही है और एक के बाद एक कई खादीधारी कालेधन के जाल में फंसते नज़र आ रहे हैं। ऐसे कार्बनयुक्त माहौल में अब खुद मनमोहन सिंह के हाथ कालिख लगती हैं तो यकीनन यह कहा ही जा सकता है कि सरकार की दाल में काला ही नहीं बल्कि पूरी दाल काली है।
बहरहाल, क्यों थॉमस को लेकर सरकार ने सीवीसी की गरिमा का ख्याल नहीं रखा? क्यों मनमोहन सिंह मौन रहे? और यदि अब जाकर उन्होंने जिम्मेदारी कबूली है तो इसकी सजा क्या है? जिम्मेदारी कबूलना ही यह साबित करता है कि मनमोहन सिंह पहले से जानते रहे हैं कि थॉमस नामक चीज क्या है? यानी देश को अंधेरे में रखा गया, क्यों रखा गया? ऐसे कितने ही सवाल अपनी तेज बौछारों के साथ प्रधानमंत्री के माथे पर ओले की तरह पड रहे हैं। सरकार ने जो काम किया है वह निस्संदेह शर्मनाक है, विपक्ष तो यह चाहेगा ही फिर भी जनमानस मानता है कि अगर प्रधानमंत्री में थोडी भी शर्म शेष है तो अपने पद से हट जाने की हिम्मत दिखाई जा सकती है, मगर सत्तालोभ और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी कांग्रेस के लिये यह संभव नहीं। वो तो शुक्र है कि हमारे देश में न्यायपलिका का इमानदाराना रौब चलता है अन्यथा देश का तो भगवान ही मालिक होता। जब राजा ही सो रहा हो तो उसके मंत्री-संत्री सब इसका फायदा उठाते हैं, थॉमस जिस दादागिरी के साथ अपने पद पर अडिग थे वो स्पष्ट करता है कि उनके सिर पर किसी बलवान का वरदहस्त था। और यह बलवान कौन? प्रधानमंत्री के अतिरिक्त और कौन हो सकता है? दिक्कत यह है कि अब वे ऐसा मान भी नहीं सकते कि वे कुछ नहीं जानते थे, या उन्हें समझने में देर लगी, या फिर वे किसी दबाव में थे। अफसोसजनक तो यह भी है कि 3 सितंबर 2010 से आज तक के इतने समय के बाद तथा इतने वाद-विवाद के बाद जब अदालत की फटकार लगती है तब उन्हें अपने फर्ज़ की याद आती है और वे अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करते हैं। पर हास्यस्पद यह भी है कि एक ओर सरकार कह रही है कि थॉमस हटाये जा चुके हैं किंतु अभी भी यह भ्रम कायम है (सरकार सोमवार को संसद में जवाब देने वाली है) क्योंकि थॉमस महोदय की ओर से अपने पद से इस्तीफे की बात अभी भी बाहर नहीं आई है। उन्होंने इस्तीफा दे दिया है, इसका कोई सबूत दिखाई नहीं दिया है यानी यह एक घिनौना मज़ाक नहीं तो क्या है? देश का सीधे सीधे मखौल उडाया जा रहा है, और अपनी दादागिरी व्यक्त की जा रही है, मानो थॉमस महोदय देश और देश की न्याय व्यवस्था से कोई उपर के आदमी हैं। ऐसे आदमी को तुरंत घसीटकर चौराहे पर लाकर फटकार लगाने की जरुरत होती है, किंतु ऐसा हो नहीं रहा। क्यों नहीं हो रहा? क्योंकि निश्चित रूप से थॉमस के पास कोई जादू की छडी है जिससे सरकार सहमी हुई है। थॉमस की नियुक्ति के नेपथ्य में यह तय है कि कोई बहुत बडा गेम छुपा है जो सरकार खेलने जा रही थी। पर देश का सौभाग्य है कि उसके लोकतंत्र के सबसे मज़बूत स्तंभ न्यायपालिका को डिगाना संभव नहीं है।
केरल के 1990 में हुए पामोलीन आयात घोटाले के आरोपी हैं थॉमस। उनका दामन दागदार तो है ही साथ ही उन्हें तो किसी प्रकार की सतर्कता या जांच-पडताल का अनुभव भी नहीं है, जो किसी भी सीवीसी के करतार के लिये आवश्यक होता है, बावजूद उनकी नियुक्ति को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पी. चिदंबरम ने जल्दबाजी दिखाई साथ ही नियुक्ति के लिये गठित पैनल की तीसरी सदस्य सुषमा स्वराज की बार-बार मनाही को सिरे से खारिज करते हुए थॉमस की नियुक्ति पर ठप्पा लगा दिया गया। जिस व्यक्ति पर एफआईआर दाखिल हो, जिसकी जमानत विचारधीन हो, जिस पर भ्रष्टाचार का मामला चल रहा हो क्या उससे आप उम्मीद कर सकते हैं कि वो सीवीसी के तहत जो भी कार्य करेगा पाक-साफ करेगा? दरअसल यह सब 2 जी स्पेक्ट्रम जैसे बडे-बडे घोटाले पर पानी फेरने और देश को गुमराह करने की कवायद ज्यादा जान पडती है जो सरकार के भ्रष्ट रूप को दबा सके। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह सब आखिर क्यों किया? किसके दबाव में किया? क्यों उन्होने देश को भुलावे में रखने का प्रयत्न क्या? और अब यदि उन्होंने अपनी जिम्मेदारी कबूली है तो वे इसका उदाहरण किस रूप में देंगे? क्या वे जानते हैं कि खुद को अगर वे इमानदाराना साबित करना चाहते है तो उन्हें पहले अपनी मजबुरी बयां करनी होगी, फिर अपने उपर पडे विशेष दबाव का खुलासा करना होगा। मगर विडंबना यह है कि ऐसा होगा नहीं, क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो कांग्रेस का कचूमर निकल जायेगा। ऐसी कांग्रेस के पास हिम्मत नहीं कि वो देश के लिये अपना बलिदान दे सके, इसका मतलब यह हुआ कि देश को अब नया खेल देखने को तैयार हो जाना चाहिये। आप यूपीए गठबंधन का कालिख लगा दामन किसी सर्फ एक्सेल से धुला हुआ देख सकते हैं। क्योंकि यह तय है कि सरकार अब थॉमस की जगह नये की नियुक्ति कर देगी और इस पूरे विवाद को पीछे छोड देगी। प्रधानमंत्री की ली गई जिम्मेदारी से उठे सवाल जैसे थे वैसे ही रखे रह जायेंगे और एकबार फिर देश की जनता किसी बडे सच से अनजान रह कर नये फेरे में अपनी नज़र गाढ लेगी। यह देश का दुर्भाग्य है। और इसे कांग्रेस अच्छी तरह से समझती है कि भारतीय लोगों को भूलने की आदत है, उन्हें आसानी से बेवकूफ बनाया जा सकता है। वैसे भी तुलसीदास की चौपाई चरितार्थ होती है कि " समरथ को नहिं दोष गुंसाई...।"

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

घोटालों के बीच गुम हो रहा सुदर्शन चक्र

पूर्व संघ सरसंचालक सुदर्शन के बयान के बाद मचा बवाल इस पूरे पखवाडे में घोटालो की भेंट चढ गया। वैसे भी सुदर्शन कह कर चुप थे और उधर सोनिया गान्धी ने तो अपना मुंह खोला ही नहीं था। सुदर्शन नहीं जानते थे कि संघ और भारतीय जनता पार्टी उनके बयान पर मुंह फेर लेगी। मगर सोनिया जानती थी कि उन्हें चुप रहना है क्योंकि उनके चाटुकार सैनिकों की फौज काफी है इस बयान, बवाल से निपटने के लिये। यह देश की विडंबना है कि जिसे सुदर्शन का साथ देना चाहिये था उसने अपना हित साधने के लिये होंठ सिल लिये। सुदर्शन का बयान झूठा या सच्चा जो भी हो..किंतु यह जांच का विषय होना ही चाहिये था। आपको क्या लगता है कि सुदर्शन कोई नासमझ व्यक्ति है जिन्होंने किसी पागलपन के दौरे में बयान दिया? क्या वे इस देश को सोनिया से कम जानते हैं या सिर्फ सोनिया ही त्याग की मूर्ति हैं सुदर्शन नहीं? सुदर्शन पढे-लिखे, बेहद सुलझे विचारों वाले और तमाम ऊंच-नीच को जानने-समझने वाले व्यक्ति हैं, सोनिया से ज्यादा...। लिहाज़ा उनके बयान को घोटालों की इस बाढ में बहने नहीं देना चाहिये था। यह भी तो हो सकता है कि घोटालों की सनसनीखेज खबरें, सुदर्शन के आग उगलते बयान पर पानी का छींटा डालने का बेहतर षडयंत्र हो? आप कहेंगे अपने बयान के बाद सुदर्शन क्यों चुप हैं? आप यह क्यों नहीं कहते कि सोनिया क्यों चुप रही? वैसे उनको सलाम ठोंकने वाले सैनिकों का उत्तर होगा कि सोनिया फिज़ूल के आरोपों पर अपना मुंह क्यों खोलेगी। तो भाई आप सैनिक क्यों बक बक करते है? जब फिजुल है तो चुप ही रहा जाये न.., मामला अपने आप निपट जायेगा। किंतु इसके पीछे का खेल भी न्यारा है। यह ऐसे मुद्दे होते हैं जब सोनिया की नज़रों में आया जा सकता है। आप अपनी वफादारी अच्छी तरह से व्यक्त कर सकते हैं। लिहाज़ा सुदर्शन का बोलना हुआ नहीं था कि चारों ओर से उन्हें घेरने, उन्हें घसीटने, उन्हें खींचने का कांग्रेसी कॉमनवेल्थ शुरू हो गया था। इधर सुदर्शन चाहते तो होंगे कि संघ उनका साथ दे। यह ताज्जुब की बात है कि संघ ने उन्हें उनके निजी विचार बता कर उनसे किनारा कर लिया। भाजपा से वैसे भी कोई ज्यादा उम्मीद उन्हें नहीं थी क्योंकि भाजपाई सोच का और मुद्दों पर संघर्ष करने का ढंग बदल चुका है। हालांकि इस मुद्दे पर वो अगर अड जाती और बगैर किसी दबाव, बगैर किसी गलत प्रक्रिया के शुद्ध जांच की मांग करके, एक बार हो ही जाये वाली शैली में आ जाती तो उसे राजनैतिक फायदा जरूर होता साथ ही देश का भी फायदा हो जाता, और दूध का दूध पानी का पानी सामने आ जाता। मगर हर बार की तरह अफसोस कि इतने संवेदनशील बयान के बावज़ूद कोई सार्थक जांच नहीं हुई। आप सोच रहे होंगे कि मैं इतना उतावला क्यों हो रहा हूं इस बयान की तह में जाने के लिये? तो आपको बता दूं कि सोनिया के लिये सुदर्शन द्वारा व्यक्त किया गया बयान कोई नया नहीं था। इसके पहले भी इस तरह की बातें राजनीतिक चक्र में घूमी थीं, और घूम कर कहीं किसी दरार में छिप गई थीं। सुदर्शन ने उसे बाहर निकालने का साहस किया। आप बता सकते हैं सुदर्शन के इस साहस की पुनरावृत्ति कोई और कर सकता है क्या? वो कांग्रेसी नेता खुद भी नहीं जिसके वज़ूद पर सुदर्शन ने अपनी बात कही थी। वैसे कांग्रेसी नेताओं में वो जिगर है ही नहीं कि सोनिया के खिलाफ कुछ सोच भी सकें। यह उनकी अपनी मज़बूरी है। मेरा तो महज़ यह मानना है कि सुदर्शन जैसा व्यक्तित्व जिसने संघ जैसी विशाल राष्ट्रीय, राष्ट्रवादी संस्था को संभाला वो कोई नीचता जनक कार्य तो कभी नहीं कर सकता है, जिससे उनका मानमर्दन हो। तब उनका बयान सिवाय सुर्खियों तक सीमित रह जाये, या सिर्फ थोडे से बवाल में नष्ट हो जाये, देश की एक उच्च पदस्थ पार्टी की उच्च पदासीन अधिकारी के लिये भी ठीक नहीं। आखिर यह उनके अपने जमीर, ईमानदारी पर उठा सवाल है। और वह भी बहुत ज्यादा घातक। जवाब मिलना चाहिये था।
खैर..। घोटालों की बाढ में इन दिनों कांग्रेस क्या और भाजपा क्या..सब के सब बह रहे हैं। एक दूसरे पर कीचड उछाल-उछाल राजनैतिक होली खेली जा रही है। जांच भी अवश्य होगी। किंतु कांग्रेस के लिये यह सुखद भी है क्योंकि अगर इन घोटालों की बाग़ड (खेत के किनारे खडी की जाने वाली घासफूस से बनी दीवार) तैयार नहीं की गई तो सोनिया पर उठे सवालों की लहलहाती फसल पर सबकी नज़र चली जा सकती है। इसलिये चाहे वो अशोक चव्हाण के आदर्श घोटाले की बात हो या रतन टाटा के बयान से उठे विवाद या फिर कॉमनवेल्थ के घोटालों की फेहरिस्त हो, सबकी सब मीडिया में अव्वल स्थान पर हो और सुदर्शन के बयान किसी रद्दी की टोकरी में पडे पुराने अखबार की तरह खत्म हो जाये..कांग्रेस की यह चाहत अवश्य रहेगी। खुदा जाने उसकी चाहतों में और क्या-क्या है? किंतु यह जरूर है कि किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति पर प्रतिष्ठित व्यक्ति द्वारा उठाई गई उंगली के लिये तीसरे अंपायर का निर्णय अगर दिया जाता तो मैच का रंग ज्यादा निखरता, उसका रोमांच बढता और सच्ची जीत सामने आती।

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

अरुधंति से सावधान

क्या अरुधंति राय जैसी बाइयों से देश को सावधान रहने की आवश्यकता नहीं है? खुद को अतिबुद्धिजीवी मानने वाली अरुधंति का विचार देश को बांटने वाला है, और यह पहला अवसर भी नहीं है कि बाई ने ऐसा कहा हो। समय-समय पर अरुधंति ने आग में घी डालने वाले बयान दिये हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी का मतलब यह कत्तई नहीं होता है कि देश के बंटवारे या देश के हिस्से के विरोध में अपने बयान देकर चर्चा में बने रहने का मोह पूर्ण किया जाये। क्योंकि यह देश कोई मज़ाक नहीं है। इस देश की आज़ादी के लिये कइयों-कइयों ने अपना बलिदान दिया है। जी हां अरुधंतिजी कश्मीर भी इसी देश में है जिसके लिये आज भी हमारे देशभक्त अपने खून से उसे सींच रहे हैं, जिसे आपने भारत से अलग बताया है। अरुधंति का बयान महज़ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खुद को महान कहलवाने और यह साबित कराने के लिये है कि दिखिये हम भारत में रहने के बावज़ूद भारत के खिलाफ बोलते हैं, और किसी की हिम्मत नहीं कि हमसे ऐंठ जाये। ऐसी बाइयां या ऐसे लोग पहले तो बयान देकर सुर्खियों में छा जाते हैं, फिर अपने बयान या अपने बचाव के लिये देश को भ्रमित करने वाले बयान देते हैं, प्रेस कांफ्रेंस लेते हैं और फिर सुर्खियां ढूंढते हैं। फिलवक्त अरुधंति को कानूनी पेंच में लेने की कवायद जारी है। लिया ही जाना चाहिये। कानून की जंजीरों में ऐसे विकृत मानसिकता वाले लोगों को बांधना ही चाहिये जो देश के सौहार्द के लिये खतरा हैं।
क्या जानती हैं अरुधंति कश्मीर के बारे में? कश्मीरी पंडितों से पूछ कर देखें या फिर कश्मीर का इतिहास ईमानदराना होकर पढ लें। वैसे मैं जानता हूं कि अरुधंति जैसे लोग जिस परिवेश, जिस मानसिकता और जिस उद्देश्य के लिये जी रहे हैं उसमें दूसरों की सही राय या सही इतिहास या विशुद्ध भारतीय होकर कभी नहीं सोच सकते। उनकी रगों में विरोध और विवाद पैदा करने वाला ही खून दौडता नज़र आता है। अरुधंति राय की यह किस्मत है कि यह देश उन जैसे लोगों को फिज़ुल में महत्व दे देता है। शायद यही कारण है कि देश को ऐसे लोगों की बयानबाजी से कभी कभी बडी कीमत चुकानी पड जाती है। होना यह चाहिये कि हम अरुधंति जैसे लोगों को महत्व देना छोड दें। दूसरी बात यह है कि कश्मीर का इतिहास या भारत का इतिहास ठीक से पढा जाये। उसका अध्ययन किया जाये। अरुधंति को यह पता होगा कि हमारी संसद में सर्व सम्मति से पारित है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। अगर नहीं तो वे चाहें तो संयुक्त राष्ट्र महासभा में वी के कृष्णमेनन या एम सी छागला या फिर सरदार स्वर्ण सिंह जैसे महानुभावों की दलीलें देख-पढ लें कि कश्मीर किसका हिस्सा है? और यदि इतने से भी उनकी तथाकथित तीक्ष्ण बुद्धि में कश्मीर के प्रति ज़हर खत्म न हो तो प्राचीन भारतीय इतिहास की किताबें खरीद कर लायें और पढें कि कश्मीर किसके नक्शे में हमेशा विद्ममान है या नहीं? भारतीय इतिहास बताता है कि भारत में ईसा पूर्व (गौर से पढें अरुधंतिजी ईसा पूर्व) तीसरी शताब्दी से ही कश्मीर में एक समृद्ध नवपाषाण संस्कृति रही थी। और इस संस्कृति का जो महत्वपूर्ण स्थल मिला है वह है बुर्जहोम। यह आधुनिक श्रीनगर से ज्यादा दूर नहीं है। कहने का मतलब यह है कि मैं भारतीय इतिहास के नवपाषाण युगीन कश्मीर की बात कर रहा हूं। सिन्धु सभ्यता के विस्तार में जम्मू-कश्मीर के एक स्थल मांदा का नाम भी है जो अखनूर के निकट है। यह तो माना जायेगा न कि सिन्धु सभ्यता भारतीय इतिहास की सबसे मज़बूत सीढी है। चलिये 150 ईसवीं के भारत पर नज़र दौडा लीजिये। यह काल शक, कुषाण, सातवाहन का काल माना जाता है। अरुधंतिजी कनिष्क को जानती हैं? कुषाण वंश का तीसरा शासक कनिष्क। कनिष्क को इतिहासकारों ने कुषाण वंश का महानतम शासक माना है। उसका राज्यारोहण का काल 78 से 105 ईसवीं के बीच में अलग अलग इतिहासकारों ने माना है। जो भी हो कनिष्क के राज्यारोहण के समय कुषाण साम्राज्य में अफगानिस्तान, सिन्ध, बैक्ट्रिया व पार्शिया के प्रदेश शामिल थे। कनिष्क ने भारत में अपना राज्य विस्तार मगध तक फैलाया था और कश्मीर को तो उसने अपने राज्य में मिलाकर वहां एक नगर ही बसा लिया था जिसका नाम था कनिष्कपुर। यानी कश्मीर कनिष्क के शासनकाल के समय तो था ही यह ऐतिहासिक तथ्य है। इसके भी पहले प्राचीनतम या वैदिक कालीन इतिहास को अगर अरुधंतिजी मानती हो तो वह भी उठाकर पढ सकती हैं कि कश्मीर भारतवर्ष के नक्शे में रहा है। वे ललितादित्य के शासनकाल पर नज़र डाल सकती हैं या रणजीत सिंह के इतिहास को खंगाल कर देख लें कि कश्मीर कहां था? अरे हमारे पुराण कश्मीर की गवाही देते हैं। इसका नामकरण तो कश्यप मुनि के नाम पर हुआ माना जाता है। फिर कैसे अरुधंति राय को कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं लगता? खैर..यहां मैं साफ-साफ कह देना चाहता हूं कि मैं अरुधंति को समझाने की चेष्ठा कत्तई नहीं कर रहा, वे महान हैं..। मैं अपने भारत के इतिहास को संक्षिप्त में दर्शा कर अपने देशभक्त लोगों के सामने फिर से रख रहा हूं। मुगलों ने भारत पर काफी लम्बा राज किया, यह माना ही नहीं बल्कि लिखा भी गया है। मुगल शासको में कश्मीर किसी जन्नत से कम नहीं था। जहांगीर हो या शाहजांह भारत के इस बेमिसाल स्थान कश्मीर को विशेष प्रेम करते थे। आधुनिक भारतीय इतिहास की परतों पर तो कश्मीर स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। चाहे आप महाराजा गुलाब सिंह को ले लें या महाराजा हरिसिंह के इतिहास को खंगाल लें..क्या ये किसी विदेश में शासन करते रहे? अजी ज्यादा दूर क्यों जाते हैं..हरिसिंह के बेटे कर्ण सिंह से तो पूछ कर भी देखा जा सकता है कि कश्मीर भारत का हिस्सा है या नहीं?
अरुधंति का यह बयान था ही कि एक अन्य महाशय का बयान भी अरुधंति के बयान को बल दे गया। दिलीप पाडगांवकर का। इन महानुभाव ने कश्मीर समस्या के समाधान के लिये पाकिस्तान को शामिल करके ही हल निकल सकता है, जैसी बात कही। मानों इन्हें यह अधिकार दिया हो कि भाई दिलीपजी आप जो कहेंगे वही मान्य होगा। सिर्फ एक वार्ताकार के रूप में दिलीपजी को भेजा गया था। भाईजान ने हल ही खोज निकाला। कश्मीर का मसला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुलझाने का मतलब क्या है? वो हमारा है, हम सोचने में समर्थ हैं कि किससे, कब और कैसी बातचीत करनी होगी? विडंबना यह है कि हमारे इतिहास में गद्दारों का भी एक इतिहास है। इनकी बडी फौज रही है, जिन्होने समय-समय पर भारत को आघात पहुंचाया है। चाहे वो जयचंद के रूप में हो या रानी लक्ष्मीबाई के समय, गद्दारों ने इतिहास के प्रत्येक कालखंड में भारत की संप्रभुता पर वार किया है। और अफसोस कि इसी वजह से हम मज़बूत नहीं बन सके। गद्दारों का इतिहास दफ्न नहीं हो सका है। किंतु हां, आज हम इतने समझदार तो हो गये हैं कि गद्दारों को पहचान सकते हैं। समय यही है कि सबकुछ सरकार ही निपटेगी जैसा विचार त्याग कर हमें अपने धर्म, अपने कर्तव्य को पहचानते हुए भारत को मज़बूत व एकजुट रखने के लिये आगे बढना ही होगा। अन्यथा इसकी कीमत भयावह होगी यह तय है, जो हम सबको भुगतनी ही होगी। भारत कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक एक है..कहने में ही नहीं इसे स्वीकारने का गर्व भी महसूस करना चाहिये।

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

अमर ख्वाब

हालात आदमी को क्या से क्या बना देते हैं, यहां तक कि उसकी सोच और उसका विश्वास भी बदल जाता है। कल तक जो राजनीतिक मंच पर चमकता हुआ दिखता था, जिसकी बातों में सच्चाई भले न हो किंतु रस टपकता था, आज वो अपनी साख बचाये रखने तथा अपने आप को खडा रख पाने की जद्दोजहद में लगा है। हालात हैं। समाजवादी पार्टी से विलग कर दिये गये अमर सिंह ने लोकमंच नामक पार्टी का गठन किया था, इस गठन के वक़्त जितना शोर शराबा था वो धीरे-धीरे लगभग खत्म सा हो गया और अमर सिंह भी राजनीतिक हाशिये पर खडे दिखाई देने लगे। उनकी बातों में वो तेवर भी तैरते हुए किनारे लगने लगे जिनके दम पर अमर बाबु विख्यात थे। वैसे तो राजनीति एक ऐसा मंच है जहां सबकुछ डिस्काउंट में होता है। आपको जो बोलना है बोल दीजिये और दूसरे दिन उसका खंडन भी कर दीजिये..या अपनी बात से बिल्कुल मुंह फेर लीजिये, या फिर अडे रहिये और खडे रह कर तमाशा देखिये। सबकुछ छूट है। इस छूट का फायदा भी अमर सिंह ने खूब उठाया था। इन दिनों वे आत्ममंथन के दौर से गुजर रहे हैं शायद। क्योंकि उनके मुंह से निकलने वाले बयान कुछ इस तरह है कि "छोडो कल की बातें..कल की बात पुरानी...", अभी पिछले ही दिनों मुम्बई के अन्धेरी में उनकी प्रेसवार्ता हुई। अपने को पाकसाफ रखने की पुरानी आदत तो थी ही साथ ही मुम्बई में लोकमंच को यहां की दो सशक्त पार्टियों के साथ खडा करने की उनकी प्रेमभरी मंशा भी दिखाई दी। कभी शिवसेना या राज ठाकरे के खिलाफ बोलने वाले अमर सिंह आज उनसे दोस्ताना चाहते हैं। कारण स्पष्ट है..लोकमंच को मुम्बई में स्थापित होना है तो उसे शिवसेना और मनसे से मोहब्बत रखनी ही होगी। हालांकि अमर जितना भी चाह लें इन पार्टियों से उनका रिश्ता कभी पटरी पर बैठ नहीं सकता किंतु कोशिश जारी है। जो कभी अपने उत्तर-प्रदेश को विकास मार्ग पर ला कर खडा कर देने की बात करते थे आज वो ही कह रहे हैं कि उत्तरप्रदेश के पिछडने का कारण मायावती और मुलायम सिंह हैं। खैर..मुम्बई या महाराष्ट्र के विकास के मुद्दे पर उनकी वाणी में अब भारतीयता समाहित हो गई है। यहां तक कि उन्होने अपनी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष जनार्दन सिंह को हटा कर मराठी मानुस सुभाष बोंडे को नया प्रदेश अध्यक्ष बना दिया है। साथ ही उन्होने अपनी गलती भी स्वीकार कर ली कि मैं लाठी, फरसा जैसी रैली करने की बात नहीं करुंगा। कुलमिलाकर अमर सिंह पूरी तरह गांधीवादी के रूप में प्रकट होना चाहते हैं। और अपने पैरों को महाराष्ट्र में जमाना चाहते हैं। महाराष्ट्र में जमाने के पीछे भी कई सारे कारण हैं.., सपा से अलग होने के बाद बहुत से राजनीतिक सम्बन्ध भी टूटे हैं और पार्टी के आर्थिक तौर से भी वे पहले की तरह मजबूत नहीं रह गये हैं। बहरहाल, बीमारी के बावजूद वे 400 किलोमीटर की पदयात्रा करने वाले हैं। अलग पूर्वांचल की मांग को लेकर वे जनसमर्थन जुटाने वाले हैं। और इसके बाद वे विदर्भ की ओर नज़र करेंगे। उनका ख्वाब है कि इस तरह से वे अपनी खोई पहचान पुनः प्राप्त कर सकेंगे। किंतु जानकार मानते हैं कि अमर सिंह को पुनः खडे होने में वर्षों लग जायेंगे। मुम्बई जैसे महानगर में तो बस वे महज़ प्रेस कांफ्रेंस ही ले सकते हैं। रही बात उत्तरप्रदेश की तो यह सच है कि उत्तरप्रदेश में आज भी बहुत से हैं जो अमर सिंह के पक्ष को मज़बूत बनाते हैं। यह भी तय दिखता है कि अमर सिंह मायावती और मुलायम दोनों के लिये कांटे की तरह सबित हो सकते हैं, मगर यह तब जब अमर सिंह का आन्दोलन लगातार जारी रहे..। वे लगातार अपने लोगों के सम्पर्क में रहें और जनसमर्थन जुटाने की अलग-अलग विधियां आजमाते रहें। किंतु विदर्भ के रास्ते से वे सफल होना चाहेंगे तो..मुमकिन नहीं लगता कि उनका ख्वाब पूरा हो। अब वे जानें..उनकी रसभरी बातें जानें...। वैसे भी बिग बॉस में जाने की इच्छा और अगले जन्म में पत्रकार बनने की इच्छा उनके लुआबभरे वचन है जिनसे वे चर्चा में बने रह सकते हैं। तो इस अमर ख्वाब की नई गाथा देखने के दिन शुरू हो गये लगते हैं। आपको क्या लगता है?

कलाकार यानी?

पिछले दिनों जब टीवी शो 'बिग बॉस' शुरू हुआ तो इसमे दो पाकिस्तानी कलाकारों को लेकर महाराष्ट्र की दो पार्टियों नें विरोध प्रदर्शन किया। इसके पहले भी ऐसा हो चुका है जब पाकिस्तानी कलाकारों के खिलाफ प्रदर्शन हुए हैं। विरोध प्रदर्शन कानून रोक देता है। वो रुक जाता है। मगर पाकिस्तानी कलाकारों का आना बद्स्तूर जारी है। इस मुद्दे पर बहस-मुबाहस भी काफी हो चुकी है। और अब सबके मुंह बक बक करके थक से गये हैं। किंतु निष्कर्ष नहीं निकला कि क्या सही है और क्या गलत? मैं फिर से यह मुद्दा उछाल रहा हूं और यह खोजने की कोशिश कर रहा हूं कि आखिर सही कौन है? वो जो पाकिस्तान से कलाकार आयात कर रहे हैं या वे जो इसका विरोध कर रहे हैं या फिर वे लोग जो बक-बक कर अपनी रोटियां सेंक रहे हैं? हालांकि लब्बोलुआब यही है कि सबके धन्धे चल रहे हैं। किंतु बावज़ूद इसके..कुछ तो है जो नहीं होना चाहिये। वो क्या नहीं होना चाहिये? शुद्ध भारतीय मानसिकता की नज़र तो यही कहती है कि हमे पाकिस्तान से किसी कलाकार को आमंत्रित नहीं करना चाहिये। क्यों? क्योंकि पाकिस्तान में भारतीय कलाकारों पर अघोषित बैन हैं। क्योंकि पाकिस्तान भारत की रीढ में घुस कर हमला करने की मानसिकता रखता है। क्योंकि आज के ऐसे हालात नहीं हैं जो इन दो देशों के बीच किसी गैरराजनीतिक तरीकों से दोस्ती का तर्क दे सकते हों। क्योंकि हम ही इतने उतावले क्यों होते रहें? अब कलाकारों को इस लिहाज़ में शामिल नहीं करना चाहिये, ये दलीलें होती हैं। किसकी? कलाकारों की, कुछ राजनीतिक दलों की, कुछ अति बुद्धिजीवियों की..। सोचिये यदि हम घोषित तौर पर बैन लगा देते हैं तो क्या बिगड जायेगा? वोट बैंक। दुनिया को दिखाया जाने वाला ढोंग। राजनीतिक पार्टियों का संतुलन। रीयलीटी शो वालों का हिसाब-किताब। न्यूज चैनल वालों की टीआरपी। और यह सब बाज़ार को प्रभावित कर देने वाला होगा। आइये अब पाकिस्तान पर नज़र करें- विस्फोटों और आतंक से लगभग बदहाल हो चुके इस देश में कला, संस्कृति, खेल आदि की वाट लगी हुई है। ऐसे में भारतीय कलाकारों के जरिये वे लाखों-करोडों के वारे-न्यारे कर सकते हैं, बिगडी हुई अर्थ व्यवस्था को पटरी पर ला सकते हैं..किंतु कट्टरता ऐसी है कि भारत से नफरत उनकी नसों में व्याप्त है। भूखे मरने की कगार वाले कलाकारों को अगर दुनिया में कोई पूछने वाला देश है तो वो भारत है..। बावज़ूद नमकहलाली की मानसिकता से परे पाकिस्तान में भारत..जानी दुश्मन की तरह है। इसलिये भारतीय कलाकारों, खिलाडियों या किसी शो-वो वाले माध्यमों पर वहां स्वचलित बैन है। अब लौट आइये अपने देश, हमारी क्या मजबूरी? क्या महज़ इस बाबत हम पाकिस्तानी कलाकारों को दूर रखें कि वहां हमारे कलाकारों के साथ सही बर्ताव नहीं होता या पाकिस्तान हमारे देश में आतंक फैलाने वाला देश है तो आखिर इसमे हर्ज़ ही क्या है? किंतु कमाई में हर्ज़ है। तो क्या सिर्फ कमाई के लिहाज़ से हम अपनी भावनाओं का कत्ल कर दें?
हां, यह भी मजेदार है जैसा कि हाल ही में बिग बॉस से बेघर हुई पाकिस्तानी कलाकार बेगम ने खुद को शांति दूत की तरह पेश किया। यानी शांति दूत की तरह आते हैं कलाकार। पर यह तो तब सम्भव है जब इन तथाकथित दूतों को वहां की सरकार कायदे से दूत बनाकर भेजती। भारत की ज़मीन पर शांति के दूत की बातें..क्या कमाई का हथकंडा नहीं लगता? अगर शांति की इतनी ही इमानदारी है तो पाकिस्तान में कभी ऐसा नज़ारा क्यों नहीं देखने मिलता कि वहां के तमाम कलाकार एकजुट होकर बैनर लेकर निकल पडे हो सडकों पर कि हमे भारत से प्यार है..शांति चाहिये। भाई, अपनी बुद्धि इस मसले पर कुछ समझ ही नहीं पाती है। और खोजने की कोशिश हर बार यहीं आकर टिक जाती हैं कि आखिर ये क्या लगा रखा है कि पाकिस्तान से कलाकार बुलाये जा रहे हैं? हमारे यहां कम पड गये हों ऐसा भी नहीं। अब आप सुझाइये..सही क्या है? क्योंकि फिलवक्त मुझे कई नज़रियों से अपना यही तर्क सही लग रहा है..। पर ऐसा भी कतई नहीं है कि आपका तर्क मैं टीवी शो वालों की तरह काटूं, या विवाद पैदा करूं। मैं कोई राजनीतिक पार्टी वाला बन्दा नहीं, न ही अतिबुद्धिजीवी वाला प्राणी। अदना सा दिमाग है दौड रहा है। सोच रहा है। बस्स।