मंगलवार, 23 जून 2009

पप्पू की 'गिनीज बुक'

अपना एक दोस्त है, पप्पू. ये वो पप्पू नही जो पास हो जाता है. ये पप्पू तो कभी फेल हुआ ही नही.इसका उसे गर्व भी है. उसे ही नही, मुझे भी है. दरअसल अपना पप्पू कभी स्कूल गया नही और फेल पास के चक्कर मे पडा नही. मैने एक दिन उससे कहा भी था कि -यार पप्पू सरकार पढने-लिखने पर कितना जोर देती है और एक तू है कि पढता-लिखता भी नही? देख उसने एक नारा भी बनाया है कि ' पढना-लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालो'. मेरा इतना कहना ही था कि उसने जवाब दिया- यार सरकार का क्या है, उसे करना ही क्या है, मेरा तो कहना ये है भाई कि मेहनत करना सीखो ओ पढने लिखने वालो.मै चुप रह गया, वैसे बात तो उसकी भी सही थी. ऐसे पप्पू की याद बरसो बाद आई तो उससे मिलने की उत्कंठा जाग्रत हो गई. जब से इस मुम्बई नगरी मे आया हू अपना शहर भूल गया हू. जब शहर भूला तो सारे यार-दोस्त भी भूल गया. मुम्बई की यही खासियत है कि यहां आप अपना सबकुछ भूल जाओ और सिर्फ अपने काम की फिक्र मे " अपना काम तमाम किये जाओ". खैर..../ पप्पू की याद आई, उसके जैसा दोस्त भी ढूंढे नही मिल सकता. सीधा-सादा, भोला-भाला. भला अब ऐसे दोस्त मिलते है? पप्पू की एक विशेषता है वो अपनी बात डंके की चोट पर कहता है, यह अलग बात है कि उसका 'डंका' ऐसी चोट खा-खा कर उसकी किस्मत की तरह पिचक गया है.किंतु वो अलमस्त ठहरा.
सालो बाद उससे मुलाकात हुई. दुबली-पतली काया, सिर के बाल भगवान को प्यारे हो चुके थे, गोल चेहरा, छोटी छोटी आंखो मे झांकती चमक आज भी वैसी है जैसे पहले हुआ करती थी. मिलते ही उसने मुझे पहचान लिया, बोला- ओये लम्बू..कैसा है यार? मैने उससे गले मिलते हुये जवाब दिया- ठीक हू, तू बता क्या चल रहा है आजकल? उसने बडी मासूमियत से कहा- आजकल एक सोच मे उलझा हूं, अब तू मिल गया अच्छा हुआ, तुझे तो पता ही होगा.
मैने पूछा- क्या पता है?
यार बस यही कि ये गिनीज़ बुक क्या बला है, यार अपने को भी इसमे नाम लिखवाना है.पैसा-वैसा मिलता है ना इसमे?
मैने कहा- गिनीज़ बुक? अबे ये रिकार्ड बनाने व तोड्ने वालो की है, इसमे दुनिया के एसे लोगो का नाम है जिन्होने अज़ूबे काम किये है, जो दुनिया मे दूसरे ना कर पाये. तू ऐसा कर सकता है क्या?
पप्पू ने कहा- ओह तो ऐसा है...यार तब तो मेरा नाम इसमे होना ही चहिये.
मैने सवाल किया- क्यो?
उसने जवाब दिया- यदि दुनिया मे अज़ूबा ही इसमे शामिल हो सकता है तो मै भी अज़ूबा हूं. अपने मां-बाप की सेवा करता हूं. दुनिया मे आज ऐसा कोई करता है क्या?
मै अवाक रह गया. सचमुच चुप रह गया. पप्पू की बात तो बिल्कुल सही थी. क्या कहता...
फिर भी बोला- पप्पू, तू ठीक कहता है पर यार, इसमे ऐसा कुछ होना चाहिये जिसमे रोमांच हो, पागलपन हो, दीवानापन हो...लोगो को हैरत मे डाल दे.
उसने कहा- सीधे सीधे बोल ना कि पागल लोगो की बुक है ये, तभी मै सोचूं कि अपने भारत के लोग क्युं इसमे ज्यादा नही है.
उसकी इस बात ने भी मुझे उसके अपने देश के प्रति भोली स्वाभिमानता का दर्शन करा दिया.////
इसके बाद पप्पू से बाते खूब हुई और बिछड्ने के बाद लगा कि वाकई पप्पू सा इंसान गिनीज् बुक क्या सिर आंखो पे बैठाने लायक है.../

सोमवार, 22 जून 2009

असल साहित्य क्या है ?

इसमे कोई दो राय नही कि 'कहानी' साहित्य की खूबसूरत विधा है. किंतु 'कहानी' ही साहित्य है, यह हज़म हो जाने जैसा तो नही लगता. पिछले दिनो जब हम मित्र मंड्ली मे यह चर्चा चल रही थी और साहित्य के तथाकथित 'कार' राजेन्द्र यादव के सन्दर्भ मे बात करके अपना समय जाया कर रहे थे तो इस बीच मेरा गौतम राजरिशी जी के ब्लोग पर जाना हुआ, वहा भी मेने यही पाया कि राजेन्द्र जी मौज़ूद है/ लिहाज़ा मेरा मासूम मन साहित्य मे गद्य के प्रति विचारो की अग्नि मे तपने लगा/ 'जितना तपता सोना उतना निखरता है' वाला कथन सच ही है/गौतमजी के ब्लोग पर राजेन्द्र यादव के प्रति स्वस्थ आलोचना मन को भायी, स्वस्थ आलोचना साहित्य को तराशने का काम करती है/ हालांकि राजेन्द्रजी जैसे जीव का पाचन तंत्र कितना बलिष्ठ है इसका पता नही किंतु साहित्य के 'आका' कहलाने का उनका मोह 'हंस' मे दीखता है/ उनका साहित्य और साहित्य के लिये उठा पट्क वाला जो आभा मन्डल है वो उन लोगो की आंखे भले ही चौन्धीयाता रहे जिन्हे उनसे स्वार्थ हो, मेरी आंखो मे वे और उनका सहित्य कभी आकर्षण का पात्र नही बन सका। अपना अपना द्रष्टिकोण ठहरा. सौभाग्यवश मेरी उनसे कभी मुलाकात नही हुई, दुर्भाग्यावश मेने उनकी कुछ रचनाओ को पढा है। खैर जहा तक बात कहानी को ही साहित्य मानने की है तो मै इसे ठीक नही मानता। साहित्य की उपज राग से है, राग पध्य रूप मे ज्यादा स्पष्ट होता है। लिहाज़ा साहित्य का जन्म ही मै पध्य से हुआ मानता हू/ आप यदि गम्भीरता से विचार करे या साहित्य की मूल गहराई मे उतरे तो पहले काव्य के रूपो को जानने व समझने के लिये थोडा पाश्चात्य व भारतीय परम्परा को खंगाल लेना आवश्यक है। काव्य के भेदो मे यूरोपीय समीक्षको ने व्यक्ति और संसार को प्रथक करके काव्य के दो भेद किये है, एक विषयीगत दूसरा विषयागत. विषयीगत यानी सब्जेक्टिव, जिसमे कवि को प्रधानता मिलती है और दूसरा विषयागत यानी आब्जेक्टिव जिसमे कवि के अतिरिक्त शेष स्रष्टि को मुख्यता दी जाती है. यानी पहला प्रकार काव्य 'लिरिक' हुआ। यूनानी बाज़ा 'लाइर' से सम्बन्ध होने के कारण इसका शाब्दिक अर्थ तो वैणिक होता है किंतु इसे प्रायः प्रगति या भाव- प्रधान काव्य कहते है। इसमे गीत तत्व की प्रधानता रह्ती है. दूसरे प्रकार के काव्य को अनुक्रत या प्रक्थनात्मक कहा गया है। महाकाव्य और खंड काव्य इसके उपविभाग है. किंतु पाश्चात्य देशो मे प्रायः महाकाव्य ही इस प्रकार के काव्य का प्रतिनिधित्व करता है. वहा खंड काव्य जैसा कोई विशेष उपविभाग नही है. ये विभाग पध्य के ही है। अब यदि गध्य की बात करे तो इसके विभाजन मे गध्य काव्य की महिमा है. जहा भाव-प्रधान काव्य मिलेगा. और उपन्यास महाकाव्य का तथा कहानी खंड्काव्य का प्रतिनिधित्व करेगा/ गद्य मे निबन्ध, जीवनी आदि अनेक ऐसे रूप है जिनको इस विभाजन मे अच्छी तरह बान्ध नही सकते. पर गध्य काव्य के शेत्र से बाहर नही है। गद्य का उलट ही पद्य है. जिसको आप अंगरेज़ी मे (Verse) कहते है। आप जानते है कि भारतीय परम्परा मे नाटक को प्रधानता मिली है। जो काव्य अभिनीत होकर देखा जाये तो द्रष्य काव्य है और जो कानो से सुना जाये तो श्रव्य काव्य कहलाता है। यध्यपि श्रव्य काव्य पढे भी जाते है। रामायण का उदाहरण लिया जा सकता है जिसे पढने व गाने के लिये उपयुक्त माना जाता है। उपन्यास महाकाव्य का स्थानापन्न होकर और कहानी खन्डकाव्य के रूप मे गद्य के प्रबन्ध काव्य कहे जाते है। गद्य काव्य तो मुक्तक है ही, पत्र भी मुक्तक की कोटि मे आयेंगे. उनकी निबन्ध और जीवनी के बीच की सी स्थिति है। समस्त संग्रह की द्रष्टि से एक एक निबन्ध मुक्तक कहा जा सकता है। किंतु निबन्ध के भीतर एक बन्ध रहता है. ( हालांकि उनमे निजीपन व स्वछन्दता भी होती है) वैयक्तिक तत्व की द्रष्टि से गद्य के विभागो को इस प्रकार श्रेणी बद्ध कर सकते है, उपन्यास, कहानी ( काव्य के इस रूप मे उपन्यास की अपेक्षा काव्य तत्व और निजी द्रष्टिकोण अधिक रहता है.) जीवनी यह इतिहास और उपन्यास के बीच की चीज है। इसका नायक वास्तविक होने के कारण अधिक व्यक्तिपूर्ण होता है) निबन्ध (इसमे विषय की अपेक्षा भावना का आधिक्य रहता है) गद्य काव्य तो ये सभी रूप है। किंतु गद्य काव्य के नाम की विधा विशेष रूप से गद्य काव्य है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो यह समझते है कि साहित्य कहानी या गद्य को ही कहा जाता है वे मेरी समझ मे ना समझ है। गद्य का जन्म ही कविता से हुआ है। मुझे अच्छा यह लगा कि गौतमजी न सिर्फ गज़ल या संस्मरण के महारथी है बल्कि वे वैचारिक स्तर पर साहित्य की परख करने से भी नही हिचकिचाते है। सम्भव है इसीलिये मुझे उनका ब्लोग रुचिकर लगता है।