सोमवार, 12 जुलाई 2010

यह कैसा इतिहास?

इतिहास कैसा होना चाहिये? सत्य पर आधारित। और सत्य? कम से कम गोरों द्वारा दिये गये सत्य जैसा तो नहीं। क्योंकि गोरों ने हमारे इतिहास से काफी छेडखानी की है, नफरत के बीज बोये हैं, जो उनके खून में है। उनके गन्दे खून का भी एक इतिहास है। खैर, इन दिनों महाराष्ट्र में एक किताब पर बवाल मचा हुआ है। जेम्स लेन नामक एक कथित इतिहासकार हैं जिन्होंने शिवाजी महाराज पर एक किताब रची है ' शिवाजी-हिन्दू किंग इन इस्लामिक इंडिया' नामक। किताब मैने पढी नहीं है, पढना भी नहीं चाहता। क्योंकि उसके जितने प्रचारित या प्रसारित अंश पढे है वे तमाम, किसी भी सत्य से कोसो दूर हैं। यह विडम्बना है कि हमने अपने इतिहास के लिये हमेशा से ही गोरों की बातों पर विश्वास किया। हमारे इतिहासकार भी हुए किंतु अधिकांश सहमति गोरों की बातों से दर्शाई गई। क्यों? क्या हमारे इतिहासवेत्ता लायक नहीं या उनकी बातें गलत हैं? ऐसा कुछ भी नहीं है, यदि हम पी एन ओक जैसे इतिहासकारों को आज मान्यता देते तो सम्भव था इन गोरों द्वारा समय-समय पर जिस तरह से जनमानस को भडकाने का षडयंत्र चला आ रहा है वो बन्द हो जाता। ग्रांट डफ जैसे इतिहासकारों को हमने अपने दस्तावेजों मे तरजीह दे दी मगर ओक को क्यों नहीं?
इस विषय पर तर्क-वितर्क होगा। हास्यास्पद तो वो है जो लेन की किताब की तरफदारी करेगा। मैं लेन की तरफदारी क्यों नहीं करता? आपको बता दूं कि इतिहास का छात्र रहा हूं। भारतीय इतिहास से लेकर यूरोपीय इतिहास का गम्भीर अध्ययन किया हुआ है। हां पीएचडी नहीं है तो इसका मतलब यह भी नहीं कि बन्दे ने रिसर्च जैसा कुछ किया ही नहीं। ढेरों इतिहासकारों को पढा, कई-कई जगह खुद गया और जानकारियां ली। बहस-मुबाहस भी खूब की। और हमेशा अपने इतिहासकारों की बातों को यकीन के करीब पाया। खासकर पी एन ओक जैसे। जदुनाथ सरकार, जी एस सरदेसाई, एम जी रानाडे जैसों ने भारत के सन्दर्भ में काफी सच्चा अध्ययन किया है। यदि ग्रांट डफ जैसे ने शिवाजी द्वारा अफज़ल खां
के खिलाफ विश्वासघात का आरोप लगाया तो रानाडे ने अपनी पुस्तक' राइज आफ द मराठा' में इसका बहुत सटिक जवाब दिया है। खैर..मैं कहना यह चाह रहा हूं कि जेम्स लेन बाजारवाद का इतिहासकर्ता है। उसकी किताब किसी प्रकार के अध्ययन या रिसर्च का नतीज़ा नहीं है बल्कि बाज़ार द्वारा प्रायोजित भारत के जनमानस को भडकाने का कृत्य है। लेकिन फिलहाल न्याय के क्षेत्र में लेन की किताब की लाइन क्लीयर है। आपको बता दूं और यह तमाम इतिहासवेत्ता जानते हैं कि शिवाजी महाराज द्वारा मराठा राज्य की स्थापना की सम सामयिक स्त्रोत सामग्री व अभिलेखों के पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न होने के कारण उनके प्रशासनिक आदर्शों व परम्पराओं का अनुमान लगाना कठिन है। यूरोपीय स्त्रोत व फारसी इतिवृत्तों से भी इस सम्बन्ध में पर्याप्त सूचना प्राप्त नहीं होती तथा मराठी अभिलेख अधिकतर परवर्ती काल से संबद्ध है। अब रही उत्तरकालीन प्रशासनिक पद्धति से अनुमान की बात, तो इसी के आधार पर शिवाजी के जीवनकाल की घटानाओं का अनुमानभर लगाया गया है। इसमें भी भारतीय इतिहासकार ज्यादा करीब माने गये हैं क्योंकि उन्होंने जमीन से जुडी जानकारियां प्राप्त की और विदेशी इतिहासकारों ने सुनी सुनाई बातों को अपने ढंग से मोडने का काम किया। अब जेम्स लेन को कोई नया तीर मारना था सो महाराष्ट्र में देवतुल्य पूजनीय समझे जाने वाले शिवाजी महाराज के खिलाफ आग उगली ताकि बवाल हो और उसकी किताब धडल्ले से बिके। मोटी कमाई हो। मेरा मानना है इतिहास जो रहा, वो रहा..आज क्या है? जो राज्य शिवाजी के नाम से गर्व अनुभव करता है, सिर्फ राज्य नहीं पूरा भारतवर्ष, और इसके साथ ही उस राज्य की आस्था भी जुडी है तो इसे भंग करने का दुस्साहस कतई नहीं किया जाना चाहिये। यह अपराध है। आप किसी इतिहास को, ऐसा इतिहास को जो जनमानस में घर कर गया हो, जिससे दिशायें प्रवाहित होती हैं, जिससे प्रेरणा का सूत्रपात होता है उसे किसी भी प्रकार के तथ्यों का प्रभावी जामा पहना कर सत्य को झुठलाने का प्रयास करते हैं तो यह आपका अतुलनीय कार्य नहीं बल्कि घोर अपराध है? जेम्स लेन को विद्वान मानने से में इंकार करता हूं। उसकी विद्वत्ता गोरों की मानसिकता का परिचायक हैं। कम से कम आप तो इस सच्चाई को पूरी ईमानदार तरीके से स्वीकार कीजिये। तर्क-वितर्क तो बहुत हो जायेंगे। मगर अपने देश के लिये यदि अन्धभक्ति भी हो तो क्या गलत है?

रविवार, 4 जुलाई 2010

है हिम्मत? नहीं न।

Small price paid today, will reap big benifits tomorrow. "BHARAT BANDH IS NOT A SOLUTION"
यह विज्ञापन है भारत सरकार के पैट्रोलियम और गैस मंत्रालय का। और इधर तमाम राजनीतिक पार्टियों द्वारा भारत बन्द का आवाहन भी। आप भूल जाइये कि आपका कुछ भला होने वाला है। बन्द एक ताक़त के रूप मे इस्तमाल करने वाला हथियार है और जब उस बन्द के जवाब में सरकार ही यह पत्थर की लक़ीर वाला फैसला ले ले तो बताइये आपके बन्द का मतलब क्या? आप कौनसी और किसको अपनी ताक़त दिखा रहे हैं? और यह ताक़त दिखा कौन रहा है? एक राजनीतिक पार्टी कीमतें बढा रही है, दूसरी पार्टी उसका विरोध कर रही है। जनता सिर्फ और सिर्फ दोनों की गतिविधियों को ताक़ रही है। इसमे कौन किसका भला कर रहा है? दिमाग पर जोर डाल कर देखें तो बन्द महज़ एक नाटक है। या नाटक बन कर रह जाने वाला है क्योकि इसमे जनता का कोई योगदान दिख रहा है, बिल्कुल नहीं लगता। पार्टियां बन्द करा रही है। पार्टियों के अपने कार्यकर्ता हैं वे सडक पर उतरे हैं या उतरेंगे..जनता तमाशा देख रही है, कभी बन्द को कोसती है कभी सत्ता को। अफसोस यह है कि जनता सडक पर उतरने की हिम्मत नहीं दिखाती। और यही वजह है कि जब बन्द का आवाहन होता है तो सरकार एक दिन पूर्व तमाम अखबारो आदि में विज्ञापित कर देती है कि हम मानने वाले नहीं है, विरोध फिज़ूल है। बताइये जब वो मानना ही नहीं चाहती तो आपकी पार्टी आखिर क्या बिगाड लेगी? यही न कि जनता के सामने जनता के लिये लडने का प्रदर्शन होगा और इस प्रदर्शन के बाद सरकार फिर कोई तुनतुना जनता को पकडा देगी, जनता फिर चुप। पार्टियों के अपने अपने काम बन जायेंगे। बस्स....। मुद्दा सिर्फ महंगाई का नहीं है। आज जनता के सामने ढेर सारी समस्यायें हैं और यकीन मानिये एक भी समस्या हल होती नहीं दिखती। दिखता है राजनितिक दंगल। आप जानते हैं यह सब क्यों होता है, आप जानते हैं कि यह सब इसलिये होता है क्योंकि आपमें ताक़त नहीं है लडने की। संघर्ष करने की। आपको बैठे बैठे सब मिल जाये या बैठे बैठे समस्यायें हल हो जाये, यही चाहिये, और यही चाहत सत्ता में बैठे या विरोध में बैठे राजनैतिक कलाकारो की ढाल है। खुद मूर्ख बनते कैसे हैं यह भारत की जनता से अच्छा उदाहरण कहीं ओर देखने में नहीं आयेगा। देखने में आयेगा, बन्द, पुलिसिया लाठी चार्ज, सरकारी बयान, विरोधी पार्टियों के प्रतिउत्तर, फिर चैनलों पर टीका टिप्पणियों वाले टॉक शो....., अखबार रंगे होंगे समाचारों से। आप सुबह अपने घर बैठे चाय की चुस्कियों का लुत्फ उठाते हुए उसे पढेंगे..गली-मोहल्ले, पान की दुकानों आदि पर गपशप करेंगे इन सब क्रियाकलापों की बातें..और रात घर आयेंगे चादर तान कर सो जायेंगे..या बहुत हुआ तो अपने विचार रख देंगे इस पर......। उफ्फ कितनी निरीह जनता.....। और इस जनता का में भी एक हिस्सा हूं...शर्म आती है। शर्म आती है नेताओं के हाथों की कठपुतली बनी जनता का नाच देखते हुए।
क्रांति..........। क्यों हिम्मत नहीं होती न इस शब्द को साकार करने की? मुझमे भी नहीं है। इसलिये कि मैं भी आपकी तरह भारत के 21 वीं सदी का होनहार युवक हूं जिसे "ऐसा तो होता रहता है रोज़...", कह कर निकल जाने की आदत है। या " ऐसा नहीं होना चाहिये" जैसे विषयों पर खूबसूरती से बयान आदि देने की महारथ है।