बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

अरुधंति से सावधान

क्या अरुधंति राय जैसी बाइयों से देश को सावधान रहने की आवश्यकता नहीं है? खुद को अतिबुद्धिजीवी मानने वाली अरुधंति का विचार देश को बांटने वाला है, और यह पहला अवसर भी नहीं है कि बाई ने ऐसा कहा हो। समय-समय पर अरुधंति ने आग में घी डालने वाले बयान दिये हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी का मतलब यह कत्तई नहीं होता है कि देश के बंटवारे या देश के हिस्से के विरोध में अपने बयान देकर चर्चा में बने रहने का मोह पूर्ण किया जाये। क्योंकि यह देश कोई मज़ाक नहीं है। इस देश की आज़ादी के लिये कइयों-कइयों ने अपना बलिदान दिया है। जी हां अरुधंतिजी कश्मीर भी इसी देश में है जिसके लिये आज भी हमारे देशभक्त अपने खून से उसे सींच रहे हैं, जिसे आपने भारत से अलग बताया है। अरुधंति का बयान महज़ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खुद को महान कहलवाने और यह साबित कराने के लिये है कि दिखिये हम भारत में रहने के बावज़ूद भारत के खिलाफ बोलते हैं, और किसी की हिम्मत नहीं कि हमसे ऐंठ जाये। ऐसी बाइयां या ऐसे लोग पहले तो बयान देकर सुर्खियों में छा जाते हैं, फिर अपने बयान या अपने बचाव के लिये देश को भ्रमित करने वाले बयान देते हैं, प्रेस कांफ्रेंस लेते हैं और फिर सुर्खियां ढूंढते हैं। फिलवक्त अरुधंति को कानूनी पेंच में लेने की कवायद जारी है। लिया ही जाना चाहिये। कानून की जंजीरों में ऐसे विकृत मानसिकता वाले लोगों को बांधना ही चाहिये जो देश के सौहार्द के लिये खतरा हैं।
क्या जानती हैं अरुधंति कश्मीर के बारे में? कश्मीरी पंडितों से पूछ कर देखें या फिर कश्मीर का इतिहास ईमानदराना होकर पढ लें। वैसे मैं जानता हूं कि अरुधंति जैसे लोग जिस परिवेश, जिस मानसिकता और जिस उद्देश्य के लिये जी रहे हैं उसमें दूसरों की सही राय या सही इतिहास या विशुद्ध भारतीय होकर कभी नहीं सोच सकते। उनकी रगों में विरोध और विवाद पैदा करने वाला ही खून दौडता नज़र आता है। अरुधंति राय की यह किस्मत है कि यह देश उन जैसे लोगों को फिज़ुल में महत्व दे देता है। शायद यही कारण है कि देश को ऐसे लोगों की बयानबाजी से कभी कभी बडी कीमत चुकानी पड जाती है। होना यह चाहिये कि हम अरुधंति जैसे लोगों को महत्व देना छोड दें। दूसरी बात यह है कि कश्मीर का इतिहास या भारत का इतिहास ठीक से पढा जाये। उसका अध्ययन किया जाये। अरुधंति को यह पता होगा कि हमारी संसद में सर्व सम्मति से पारित है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। अगर नहीं तो वे चाहें तो संयुक्त राष्ट्र महासभा में वी के कृष्णमेनन या एम सी छागला या फिर सरदार स्वर्ण सिंह जैसे महानुभावों की दलीलें देख-पढ लें कि कश्मीर किसका हिस्सा है? और यदि इतने से भी उनकी तथाकथित तीक्ष्ण बुद्धि में कश्मीर के प्रति ज़हर खत्म न हो तो प्राचीन भारतीय इतिहास की किताबें खरीद कर लायें और पढें कि कश्मीर किसके नक्शे में हमेशा विद्ममान है या नहीं? भारतीय इतिहास बताता है कि भारत में ईसा पूर्व (गौर से पढें अरुधंतिजी ईसा पूर्व) तीसरी शताब्दी से ही कश्मीर में एक समृद्ध नवपाषाण संस्कृति रही थी। और इस संस्कृति का जो महत्वपूर्ण स्थल मिला है वह है बुर्जहोम। यह आधुनिक श्रीनगर से ज्यादा दूर नहीं है। कहने का मतलब यह है कि मैं भारतीय इतिहास के नवपाषाण युगीन कश्मीर की बात कर रहा हूं। सिन्धु सभ्यता के विस्तार में जम्मू-कश्मीर के एक स्थल मांदा का नाम भी है जो अखनूर के निकट है। यह तो माना जायेगा न कि सिन्धु सभ्यता भारतीय इतिहास की सबसे मज़बूत सीढी है। चलिये 150 ईसवीं के भारत पर नज़र दौडा लीजिये। यह काल शक, कुषाण, सातवाहन का काल माना जाता है। अरुधंतिजी कनिष्क को जानती हैं? कुषाण वंश का तीसरा शासक कनिष्क। कनिष्क को इतिहासकारों ने कुषाण वंश का महानतम शासक माना है। उसका राज्यारोहण का काल 78 से 105 ईसवीं के बीच में अलग अलग इतिहासकारों ने माना है। जो भी हो कनिष्क के राज्यारोहण के समय कुषाण साम्राज्य में अफगानिस्तान, सिन्ध, बैक्ट्रिया व पार्शिया के प्रदेश शामिल थे। कनिष्क ने भारत में अपना राज्य विस्तार मगध तक फैलाया था और कश्मीर को तो उसने अपने राज्य में मिलाकर वहां एक नगर ही बसा लिया था जिसका नाम था कनिष्कपुर। यानी कश्मीर कनिष्क के शासनकाल के समय तो था ही यह ऐतिहासिक तथ्य है। इसके भी पहले प्राचीनतम या वैदिक कालीन इतिहास को अगर अरुधंतिजी मानती हो तो वह भी उठाकर पढ सकती हैं कि कश्मीर भारतवर्ष के नक्शे में रहा है। वे ललितादित्य के शासनकाल पर नज़र डाल सकती हैं या रणजीत सिंह के इतिहास को खंगाल कर देख लें कि कश्मीर कहां था? अरे हमारे पुराण कश्मीर की गवाही देते हैं। इसका नामकरण तो कश्यप मुनि के नाम पर हुआ माना जाता है। फिर कैसे अरुधंति राय को कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं लगता? खैर..यहां मैं साफ-साफ कह देना चाहता हूं कि मैं अरुधंति को समझाने की चेष्ठा कत्तई नहीं कर रहा, वे महान हैं..। मैं अपने भारत के इतिहास को संक्षिप्त में दर्शा कर अपने देशभक्त लोगों के सामने फिर से रख रहा हूं। मुगलों ने भारत पर काफी लम्बा राज किया, यह माना ही नहीं बल्कि लिखा भी गया है। मुगल शासको में कश्मीर किसी जन्नत से कम नहीं था। जहांगीर हो या शाहजांह भारत के इस बेमिसाल स्थान कश्मीर को विशेष प्रेम करते थे। आधुनिक भारतीय इतिहास की परतों पर तो कश्मीर स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। चाहे आप महाराजा गुलाब सिंह को ले लें या महाराजा हरिसिंह के इतिहास को खंगाल लें..क्या ये किसी विदेश में शासन करते रहे? अजी ज्यादा दूर क्यों जाते हैं..हरिसिंह के बेटे कर्ण सिंह से तो पूछ कर भी देखा जा सकता है कि कश्मीर भारत का हिस्सा है या नहीं?
अरुधंति का यह बयान था ही कि एक अन्य महाशय का बयान भी अरुधंति के बयान को बल दे गया। दिलीप पाडगांवकर का। इन महानुभाव ने कश्मीर समस्या के समाधान के लिये पाकिस्तान को शामिल करके ही हल निकल सकता है, जैसी बात कही। मानों इन्हें यह अधिकार दिया हो कि भाई दिलीपजी आप जो कहेंगे वही मान्य होगा। सिर्फ एक वार्ताकार के रूप में दिलीपजी को भेजा गया था। भाईजान ने हल ही खोज निकाला। कश्मीर का मसला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुलझाने का मतलब क्या है? वो हमारा है, हम सोचने में समर्थ हैं कि किससे, कब और कैसी बातचीत करनी होगी? विडंबना यह है कि हमारे इतिहास में गद्दारों का भी एक इतिहास है। इनकी बडी फौज रही है, जिन्होने समय-समय पर भारत को आघात पहुंचाया है। चाहे वो जयचंद के रूप में हो या रानी लक्ष्मीबाई के समय, गद्दारों ने इतिहास के प्रत्येक कालखंड में भारत की संप्रभुता पर वार किया है। और अफसोस कि इसी वजह से हम मज़बूत नहीं बन सके। गद्दारों का इतिहास दफ्न नहीं हो सका है। किंतु हां, आज हम इतने समझदार तो हो गये हैं कि गद्दारों को पहचान सकते हैं। समय यही है कि सबकुछ सरकार ही निपटेगी जैसा विचार त्याग कर हमें अपने धर्म, अपने कर्तव्य को पहचानते हुए भारत को मज़बूत व एकजुट रखने के लिये आगे बढना ही होगा। अन्यथा इसकी कीमत भयावह होगी यह तय है, जो हम सबको भुगतनी ही होगी। भारत कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक एक है..कहने में ही नहीं इसे स्वीकारने का गर्व भी महसूस करना चाहिये।

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

अमर ख्वाब

हालात आदमी को क्या से क्या बना देते हैं, यहां तक कि उसकी सोच और उसका विश्वास भी बदल जाता है। कल तक जो राजनीतिक मंच पर चमकता हुआ दिखता था, जिसकी बातों में सच्चाई भले न हो किंतु रस टपकता था, आज वो अपनी साख बचाये रखने तथा अपने आप को खडा रख पाने की जद्दोजहद में लगा है। हालात हैं। समाजवादी पार्टी से विलग कर दिये गये अमर सिंह ने लोकमंच नामक पार्टी का गठन किया था, इस गठन के वक़्त जितना शोर शराबा था वो धीरे-धीरे लगभग खत्म सा हो गया और अमर सिंह भी राजनीतिक हाशिये पर खडे दिखाई देने लगे। उनकी बातों में वो तेवर भी तैरते हुए किनारे लगने लगे जिनके दम पर अमर बाबु विख्यात थे। वैसे तो राजनीति एक ऐसा मंच है जहां सबकुछ डिस्काउंट में होता है। आपको जो बोलना है बोल दीजिये और दूसरे दिन उसका खंडन भी कर दीजिये..या अपनी बात से बिल्कुल मुंह फेर लीजिये, या फिर अडे रहिये और खडे रह कर तमाशा देखिये। सबकुछ छूट है। इस छूट का फायदा भी अमर सिंह ने खूब उठाया था। इन दिनों वे आत्ममंथन के दौर से गुजर रहे हैं शायद। क्योंकि उनके मुंह से निकलने वाले बयान कुछ इस तरह है कि "छोडो कल की बातें..कल की बात पुरानी...", अभी पिछले ही दिनों मुम्बई के अन्धेरी में उनकी प्रेसवार्ता हुई। अपने को पाकसाफ रखने की पुरानी आदत तो थी ही साथ ही मुम्बई में लोकमंच को यहां की दो सशक्त पार्टियों के साथ खडा करने की उनकी प्रेमभरी मंशा भी दिखाई दी। कभी शिवसेना या राज ठाकरे के खिलाफ बोलने वाले अमर सिंह आज उनसे दोस्ताना चाहते हैं। कारण स्पष्ट है..लोकमंच को मुम्बई में स्थापित होना है तो उसे शिवसेना और मनसे से मोहब्बत रखनी ही होगी। हालांकि अमर जितना भी चाह लें इन पार्टियों से उनका रिश्ता कभी पटरी पर बैठ नहीं सकता किंतु कोशिश जारी है। जो कभी अपने उत्तर-प्रदेश को विकास मार्ग पर ला कर खडा कर देने की बात करते थे आज वो ही कह रहे हैं कि उत्तरप्रदेश के पिछडने का कारण मायावती और मुलायम सिंह हैं। खैर..मुम्बई या महाराष्ट्र के विकास के मुद्दे पर उनकी वाणी में अब भारतीयता समाहित हो गई है। यहां तक कि उन्होने अपनी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष जनार्दन सिंह को हटा कर मराठी मानुस सुभाष बोंडे को नया प्रदेश अध्यक्ष बना दिया है। साथ ही उन्होने अपनी गलती भी स्वीकार कर ली कि मैं लाठी, फरसा जैसी रैली करने की बात नहीं करुंगा। कुलमिलाकर अमर सिंह पूरी तरह गांधीवादी के रूप में प्रकट होना चाहते हैं। और अपने पैरों को महाराष्ट्र में जमाना चाहते हैं। महाराष्ट्र में जमाने के पीछे भी कई सारे कारण हैं.., सपा से अलग होने के बाद बहुत से राजनीतिक सम्बन्ध भी टूटे हैं और पार्टी के आर्थिक तौर से भी वे पहले की तरह मजबूत नहीं रह गये हैं। बहरहाल, बीमारी के बावजूद वे 400 किलोमीटर की पदयात्रा करने वाले हैं। अलग पूर्वांचल की मांग को लेकर वे जनसमर्थन जुटाने वाले हैं। और इसके बाद वे विदर्भ की ओर नज़र करेंगे। उनका ख्वाब है कि इस तरह से वे अपनी खोई पहचान पुनः प्राप्त कर सकेंगे। किंतु जानकार मानते हैं कि अमर सिंह को पुनः खडे होने में वर्षों लग जायेंगे। मुम्बई जैसे महानगर में तो बस वे महज़ प्रेस कांफ्रेंस ही ले सकते हैं। रही बात उत्तरप्रदेश की तो यह सच है कि उत्तरप्रदेश में आज भी बहुत से हैं जो अमर सिंह के पक्ष को मज़बूत बनाते हैं। यह भी तय दिखता है कि अमर सिंह मायावती और मुलायम दोनों के लिये कांटे की तरह सबित हो सकते हैं, मगर यह तब जब अमर सिंह का आन्दोलन लगातार जारी रहे..। वे लगातार अपने लोगों के सम्पर्क में रहें और जनसमर्थन जुटाने की अलग-अलग विधियां आजमाते रहें। किंतु विदर्भ के रास्ते से वे सफल होना चाहेंगे तो..मुमकिन नहीं लगता कि उनका ख्वाब पूरा हो। अब वे जानें..उनकी रसभरी बातें जानें...। वैसे भी बिग बॉस में जाने की इच्छा और अगले जन्म में पत्रकार बनने की इच्छा उनके लुआबभरे वचन है जिनसे वे चर्चा में बने रह सकते हैं। तो इस अमर ख्वाब की नई गाथा देखने के दिन शुरू हो गये लगते हैं। आपको क्या लगता है?

कलाकार यानी?

पिछले दिनों जब टीवी शो 'बिग बॉस' शुरू हुआ तो इसमे दो पाकिस्तानी कलाकारों को लेकर महाराष्ट्र की दो पार्टियों नें विरोध प्रदर्शन किया। इसके पहले भी ऐसा हो चुका है जब पाकिस्तानी कलाकारों के खिलाफ प्रदर्शन हुए हैं। विरोध प्रदर्शन कानून रोक देता है। वो रुक जाता है। मगर पाकिस्तानी कलाकारों का आना बद्स्तूर जारी है। इस मुद्दे पर बहस-मुबाहस भी काफी हो चुकी है। और अब सबके मुंह बक बक करके थक से गये हैं। किंतु निष्कर्ष नहीं निकला कि क्या सही है और क्या गलत? मैं फिर से यह मुद्दा उछाल रहा हूं और यह खोजने की कोशिश कर रहा हूं कि आखिर सही कौन है? वो जो पाकिस्तान से कलाकार आयात कर रहे हैं या वे जो इसका विरोध कर रहे हैं या फिर वे लोग जो बक-बक कर अपनी रोटियां सेंक रहे हैं? हालांकि लब्बोलुआब यही है कि सबके धन्धे चल रहे हैं। किंतु बावज़ूद इसके..कुछ तो है जो नहीं होना चाहिये। वो क्या नहीं होना चाहिये? शुद्ध भारतीय मानसिकता की नज़र तो यही कहती है कि हमे पाकिस्तान से किसी कलाकार को आमंत्रित नहीं करना चाहिये। क्यों? क्योंकि पाकिस्तान में भारतीय कलाकारों पर अघोषित बैन हैं। क्योंकि पाकिस्तान भारत की रीढ में घुस कर हमला करने की मानसिकता रखता है। क्योंकि आज के ऐसे हालात नहीं हैं जो इन दो देशों के बीच किसी गैरराजनीतिक तरीकों से दोस्ती का तर्क दे सकते हों। क्योंकि हम ही इतने उतावले क्यों होते रहें? अब कलाकारों को इस लिहाज़ में शामिल नहीं करना चाहिये, ये दलीलें होती हैं। किसकी? कलाकारों की, कुछ राजनीतिक दलों की, कुछ अति बुद्धिजीवियों की..। सोचिये यदि हम घोषित तौर पर बैन लगा देते हैं तो क्या बिगड जायेगा? वोट बैंक। दुनिया को दिखाया जाने वाला ढोंग। राजनीतिक पार्टियों का संतुलन। रीयलीटी शो वालों का हिसाब-किताब। न्यूज चैनल वालों की टीआरपी। और यह सब बाज़ार को प्रभावित कर देने वाला होगा। आइये अब पाकिस्तान पर नज़र करें- विस्फोटों और आतंक से लगभग बदहाल हो चुके इस देश में कला, संस्कृति, खेल आदि की वाट लगी हुई है। ऐसे में भारतीय कलाकारों के जरिये वे लाखों-करोडों के वारे-न्यारे कर सकते हैं, बिगडी हुई अर्थ व्यवस्था को पटरी पर ला सकते हैं..किंतु कट्टरता ऐसी है कि भारत से नफरत उनकी नसों में व्याप्त है। भूखे मरने की कगार वाले कलाकारों को अगर दुनिया में कोई पूछने वाला देश है तो वो भारत है..। बावज़ूद नमकहलाली की मानसिकता से परे पाकिस्तान में भारत..जानी दुश्मन की तरह है। इसलिये भारतीय कलाकारों, खिलाडियों या किसी शो-वो वाले माध्यमों पर वहां स्वचलित बैन है। अब लौट आइये अपने देश, हमारी क्या मजबूरी? क्या महज़ इस बाबत हम पाकिस्तानी कलाकारों को दूर रखें कि वहां हमारे कलाकारों के साथ सही बर्ताव नहीं होता या पाकिस्तान हमारे देश में आतंक फैलाने वाला देश है तो आखिर इसमे हर्ज़ ही क्या है? किंतु कमाई में हर्ज़ है। तो क्या सिर्फ कमाई के लिहाज़ से हम अपनी भावनाओं का कत्ल कर दें?
हां, यह भी मजेदार है जैसा कि हाल ही में बिग बॉस से बेघर हुई पाकिस्तानी कलाकार बेगम ने खुद को शांति दूत की तरह पेश किया। यानी शांति दूत की तरह आते हैं कलाकार। पर यह तो तब सम्भव है जब इन तथाकथित दूतों को वहां की सरकार कायदे से दूत बनाकर भेजती। भारत की ज़मीन पर शांति के दूत की बातें..क्या कमाई का हथकंडा नहीं लगता? अगर शांति की इतनी ही इमानदारी है तो पाकिस्तान में कभी ऐसा नज़ारा क्यों नहीं देखने मिलता कि वहां के तमाम कलाकार एकजुट होकर बैनर लेकर निकल पडे हो सडकों पर कि हमे भारत से प्यार है..शांति चाहिये। भाई, अपनी बुद्धि इस मसले पर कुछ समझ ही नहीं पाती है। और खोजने की कोशिश हर बार यहीं आकर टिक जाती हैं कि आखिर ये क्या लगा रखा है कि पाकिस्तान से कलाकार बुलाये जा रहे हैं? हमारे यहां कम पड गये हों ऐसा भी नहीं। अब आप सुझाइये..सही क्या है? क्योंकि फिलवक्त मुझे कई नज़रियों से अपना यही तर्क सही लग रहा है..। पर ऐसा भी कतई नहीं है कि आपका तर्क मैं टीवी शो वालों की तरह काटूं, या विवाद पैदा करूं। मैं कोई राजनीतिक पार्टी वाला बन्दा नहीं, न ही अतिबुद्धिजीवी वाला प्राणी। अदना सा दिमाग है दौड रहा है। सोच रहा है। बस्स।