समय ठहरता नहीं है, समय की तस्वीर से उस दौर के हालात जाने जा सकते है. किन्तु यह आवश्यक नहीं कि बीता हुआ कल, आज को खराब या बेहतर कर सके. हां हम गुजरे कल से नसीहत ले सकते है..या गुजरे कल की खुशहाली पर सुखद अहसास किया जा सकता है किन्तु जो बीत गया उसे वैसा ही रहने दिया जाए तो ठीक होता है. मगर ऐसा होता नहीं. मानवीय अवगुणों में प्रमुखता से जो तत्व सक्रीय है उनमे बीते समय की खामियों को ज़िंदा करके उस पर बहस-मुबाहस होती है. ठीक बाबा साहेब आम्बेडकर के कार्टून विवाद की तरह. दर असल जिस कार्टून को लेकर हंगामा मचा है उसे एक वर्ग विशेष के साथ जोड़ कर देखा जाने लगा है. जबकि उस वक्त जब यह कार्टून प्रकाशित हुआ था तब वर्ग विशेष की मानसिकता वश इसे छापा नहीं गया था. संविधान में होने वाली देरी और चूंकि बाबा साहेब आम्बेडकर इस संविधान के निर्माता के रूप में प्रमुख थे इसलिए उनका कार्टून बनाया गया था. संभव है उस वक्त कोई भी संविधान निर्माण का मुखिया होता तो उसे काटरूनिस्ट शंकर अपनी तूलिका से खींचते. बहरहाल, आज जब पाठ्य पुस्तक में उस कार्टून को प्रकाशित किया गया तो बवाल मचाना ही था. किन्तु यह देखना भी सर्वोपरि होगा कि किस सब्जेक्ट के तहत उस कार्टून को पुस्तक में जगह दी गयी ? अफ़सोस यह है कि हम वस्तु स्थिति को हाशिये पर रख कर अर्नगल प्रलाप करने लगते है.
वैसे भी इस दौर की राजनीति अपने सबसे बुरे दौर से गुजरती दिखाई देती है..ऐसे में आम्बेडकर के कार्टून को मुद्दे के रूप में बना लेना कोई बड़ी बात नहीं थी. देश में दलितों के नाम पर होने वाली राजनीति ने दलितों का उद्धार कम उन्हें बहकाया अधिक है..उन तक ठीक ठीक चीजे पहुंचने ही नहीं दी गयी. वे भ्रमित ही रहे. उन्हें भ्रमित बनाए रखना राजनीति बाजों का शगल है. पाठ्य पुस्तक जो बच्चो के मन-विचारों का विकास करती है, उन्हें जानकारी और ज्ञान प्रदान करती है उसके जरिये भी राजनीति करना इस देश के लिए घातक सिद्ध हो सकता है और अफ़सोस यह है कि इससे बचा नहीं जा रहा. आम्बेडकर कार्टून विवाद इसी राजनीति से जन्मा एक बवाल है. गंभीरता से इस मुद्दे को समझना होगा किन्तु गंभीरता शेष है कहा ? अन्यथा विवाद जन्म ही नहीं लेता. जिस कार्टून पर बवाल है उसके बाद खुद आम्बेडकर ने अपने एक वक्तव्य में स्पष्ट किया था कि आखिर संविधान निर्माण में देर कैसे हो रही है? क्यों हो रही है? इसके बाद के शंकर द्वारा बनाए गए कार्टून उपलब्ध नहीं हो सके वरना संभव था कि उन चित्रों में अपने पहले चित्र का खंडन भी करते शंकर दिखाई दे जाते.
देखा यह जाना चाहिए था या पूछा यह जाना चाहिए था कि आखिर इस वक्त उस कार्टून को प्रकाशित करने का क्या प्रायोजन था? तुरंत बर्खास्तगी या बवाल में घी डालने से बेहतर यही था. निश्चित रूप से पुस्तक में दलितों की भावना को ठेस लगाने की कोई मंशा नहीं रही होगी..किन्तु यह समझाए कौन? अब जब बवाल मच ही गया और कार्टून को पुस्तक से अलग भी कर दिया तब..विवाद को जस का तस बनाए रखने का भी कोई औचित्य जान नहीं पड़ता. हालांकि इस विवाद ने एक बहुत बड़ा प्रश्न भी खडा कर दिया है. आज जिस तरह से हमारे नेताओं ने कई सारी योजनाओं को ठन्डे बस्ते में डाल रखा है उस पर भी एक तरह से यह कार्टून तीखा प्रहार करता जान पड़ता था..लिहाजा इस वजह से भी विरोध उनके लिए जरूरी था जिन्होंने आग में घी डालने का काम किया और इस प्रकरण की दिशा घुमा दी गयी. मुद्दे राजनीति के लिए आवश्यक होते है. संवेदनशील मुद्दे हो तो इसे सोने पे सुहागा माना जाता है क्योंकि लोगो की भावनाओं के साथ खेल कर वोटो की जुगाड़ इस देश की पुरातन क्रिया है. कार्टून मुद्दा इतना भी बवाली नहीं था जितना इसे बना दिया गया . चूंकि संवेदना इससे जुडी हुई थी इसलिए इसकी गरमाहट में हाथ सेंकने का ही काम हुआ . बावजूद इसके मुझे फिर यह कहना होगा कि वक्त ने जो पीछे छोड़ दिया है उसे ताज़ा अगर किया भी जाना है तो उन अच्छी और प्रगतिशील तस्वीरो को उठाया जाए जिनसे देश का हर कोण से विकास हो...शेष जो अधूरे भारत का इतिहास दर्शाता है उसके पुनर्जीवन की हम क्यों मंशा पाल कर रखे? बाबा साहेब के बेहतरीन कार्यो को अगर देखा जाता तो अधिक उचित होता . बहरहाल. कार्टून विवाद से शीघ्र निकल जाना चाहिए और तमाम वर्गों में एक बात प्रसारित होनी चाहिए कि हमें देश का स्वस्थ विकास करना है. अगर राजनीति इस ओटले पर खडी होकर बुलंद हो तो हम सुखद राष्ट्र की कल्पना कर सकते है.
bahut khoob shrivastav saahab..sach he cortoon vivaad ko jabaran badaayaa gayaa ..haallanki usase esaa kuchh nahi hota ki koe varg aahat hota..kher ab jo honaa thaa vo to huaa..par is bahaane aapke vichaar to padhne ko mile
जवाब देंहटाएंaapka- adhikar sooraj
आप ने इस विषय पर [जो इतना भी पुराना नहीं हुआ ] अच्छा लेख लिखा है.
जवाब देंहटाएंआप के विचारों से सहमत .
भारत के राजनितिक गलियारों में बिना विवाद काम होते ही नहीं..यह मुद्दा भी बेवजह खींचा गया .
जबकि तरीके से भी इस मुद्दे को सुलझाया या जांचा जा सकता था.
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