रविवार, 5 अप्रैल 2009

हम क्या है ?

चुनाव का समय है। समाचार पत्रों से लेकर तमाम तरहों की पत्रिकाओ तक चुनाव और उससे सम्बंधित टीका- टिप्पणियों का मानो बाज़ार छाया हो। मेने पिछले १५ दिनों में कई पत्र-पत्रिकाओ में सिर्फ यही देखा कि लगभग हर कोई इस लोकतंत्र , नेताओ कि कार्य पध्दती आदि पर अपनी बाते कह रहा है। खासकर मज़ाक किया जा रहा है। ठीक है। इसमें बुराई भी नहीं, क्योकि जो जैसा है उसके बारे में वैसा ही लिखा जा रहा है। किन्तु इस बार का उत्साह कुछ ज्यादा है। मेरे कुछ सवाल है॥ सोचिये और चिंतन कीजिये।
क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि लेखको को मुद्दा चाहिए? और जब वो राजनीति जैसा हो तो बात ही क्या?
क्या आप खुद अपनी लिखी गई बातो पर अमल करते है?
देश कि चिंता क्या सिर्फ लिख कर ख़त्म हो जाती है?
कितने बुध्धिजीवी वोट डालने जाते है?
क्या बुराई का सामना मैदान में डट कर नहीं किया जा सकता?
क्यों आप अच्छे उम्मीदवार को चुनाव नहीं लड़वा पाते?
यदि कोई बेहतर उम्मीदवार नहीं दीखता तो क्या आपमें ताक़त है कि चुनाव लड़ लिया जाए?
और यदि एसा कुछ भी नहीं है तो इस लोकतंत्र का मज़ाक बनाते रहना क्या खुद को जोकर जैसा साबित करना नहीं है?

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